रेशम मार्ग का उत्थान व ह्रास
रेशम की जन्मभूमि
लगभग चार पांच हज़ार साल पहले चीनी लोग रेशम के कीड़े पालना, शहतूत के पेड़ उगाना, रेशम अटेरना और रेशमी कपड़ा बुनना शुरू किया था। शहतूत के पेड़ उगाना, रेशम के कीड़े पालना और रेशमी कपड़े बुनने की तकनीक प्राचीन चीन के लोगों का महान आविष्कार है। लम्बे अरसे तक भी चीन विश्व में रेशम के कीड़े पालने और रेशमी कपड़ा बुनने वाला एकमात्र देश रहा था। रेशमी कपड़ा चीनियों द्वारा विश्व को दिए गए सब से महत्वपूर्ण योगदानों में से एक है।
उत्तम रेशमी कपड़े का प्राचीन चीन के लोगों के जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ने के अलावा अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी उसे अत्यन्त ऊंची ख्याति मिली है। इतिहास में चीन के बारे में यूरोपीय लोगों की जानकारी में जो दो कुंजीभूत वस्तुएं होती थीं, उनमें से एक है चीनी मिट्टी बर्तन (शब्द चीन चीनी मिट्टी बर्तन से संबंधित है), दूसरा है रेशम। तकरीबन ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में ग्रीस के लोग चीन को"सेरिस देश"कहते थे। सेरिस का अर्थ है रेशम का उत्पादन स्थल या रेशमी कपड़े बेचने वाला।
चीनी रेशम के यूरोप में पहुंचने से पहले ग्रीस व रोमन के लोग मुख्यतः ऊन एवं पटसन से कपड़े बुनते थे। इसलिए यह कल्पना की जा सकती है कि जब प्राचीन रोमन लोग मुलायम, चमकीले व रंगीन चीनी रेशमी कपड़े पर हाथ फेरते थे, तो उन्हें कितनी आश्चर्य व खुशी हो सकती थी। पश्चिमी देशों में चीनी रेशमी कपड़े के आयात के शुरूआती काल में रेशमी कपड़े वहां के लोगों में उच्चतम कपड़े माने जाते थे। रोमन वासियों में रेशमी कपड़े पाने में उन्माद उठा था। प्राचीन रोमन के बाजार में रेशमी कपड़ा एक पौंड में 12 टल्स सोने (600 ग्राम) तक बिकता था। यूरोप के राजनीतिक व आर्थिक केंद्र रोम शहर में केवल ईने गिने अभिजात वर्ग के शख्स और ऊपरी तबके की महिलाएं रेशमी कपड़े पहन पाते थें और इस के जरिए अपनी संपन्नता व प्रतिष्ठा की शेखी बघारते थे।
इस से देखा जाए, तो रेशमी कपड़ा चीन के सिर्फ बहुतसारे उत्पादों में से एक चीज था, लेकिन पश्चिमी देशों में लोग इसे प्राचीन रहस्यमय पूर्वी देश का सांस्कृतिक प्रतीक मानते थे। पश्चिमी लोगों की नज़र में रेशमी कपड़े और अन्य उत्पादों का सांस्कृतिक अर्थ बिलकुल भिन्न था। सुन्दरता, संपन्नता और शांति का पर्याय होने वाला रेशमी कपड़ा न केवल चीन का प्रतीक था, साथ ही इस पर प्राचीन पूर्व के प्रति पश्चिम लोगों की सुन्दर कल्पना भी बंधी थी। इसलिए जब जर्मनी के भूगोल वैज्ञानिक फ़ेर्डिनान्द वॉन रिच्थोफ़न ने 1877 में इस पूर्व से पश्चिम तक फैलने वाले महत्वपूर्ण मार्ग को"रेशम मार्ग"का नाम दिया, तो जल्दी ही व्यापक रूप से स्वीकार किया गया।