इस बेमिसाल विशाल रचना को जी तोड़कर बनाने के लिये मिग्मा त्सेरिंग ने ल्हासा शहर को छोड़कर अपनी जन्मभूमि के बड़े पर्वतों के बीच रहने का फैसला कर लिया। थांगका बनाने का काम सुचारु रुप से सुनिश्चित बनाने के लिये उन्होंने पर्वतों के बीच कुछ मकान और एक बहुत बड़ा स्ट्रडियो निर्मित किये और 8 शिष्यों को भी स्वीकृत कर दिया। फिर वे इस असुविधाजनक साधारण निवास स्थान में दिन रात तक कड़ी महनत से इस विशाल थांगका की कढाई में संलग्न हुए हैं। 2004 से लेकर आज तक मिग्मा त्सेरिंग ने अपनी पूरी शक्ति इसी थांगका की कढाई में जुटायी है। इतना ही नहीं, उन्होंने इस थांगका को सूक्ष्म रुप से तैयार करने के लिये क्रमशः करीब दस लाख य्वान की पूंजी भी लगायी है। इसी बीच उन की देखरेख के अभाव से ल्हासा शहर में लगी अपनी दुकान का मुनाफा भी बड़ी हद तक गिर जाता है। अतः इधर सालों में बैंक में जमी बचत भी लगातार घटती गयी है, यहां तक कि कुछ समय हाथ भी तंग लग गया है। ऐसा होने पर भी उन्हें कोई शिकायत भी नहीं है। मिग्मा त्सेरिंग ने कहा:
"संक्षेप में कहा जाये, ड्रिगुंग कढाई थांगका मेरे परिवार का पराम्परागत धरोहर तो है । पर अब यह कौशल राष्ट्र स्तरीय गैर भौतिक सांस्कृतिक विरासत की नामसूची में शामिल किया गया है , इसी दृष्टि से अब यह कौशल मेरे खानदान का ही नहीं, मेरी जन्मभूमि का सांस्कृतिक प्रतीक भी है। थांगका जैसी सांस्कृतिक विरासत यदि हमारी पीढी में लुप्त हो जायेगी, तो बड़ी खेदजनक बात होगी। और तो और राज्य ने इसी परम्परागत सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में बड़ी पूंजी जुटायी है, अब इस धरोहर की रक्षा के लिये हरचंद प्रयास करना हमारा अपहार्य फर्ज भी है।"
वर्तमान में इस विशाल थांगका के कलपुर्जों की प्रोसेसिंग पूरी हो गयी है, वर्तमान में कलपुर्जों को जोड़ने का काम जोरों पर है। उन के अनुमान के अनुसार इस साल के अंत तक यह बेमिसाल विशाल थांगका बनाने का सारा काम पूरा होगा। उन्हें उम्मीद है कि अपनी जन्मभूमि के बड़े पर्वतों पर यह विशाल सूक्षम थांगका प्रदर्शित किया जाएगा।