क्या आप को मालूम है कि थांगका नामक कलात्मक कृति सोंगचांगकानपू काल से ही बहुत नामी हो गयी है, इस चित्र कला का इतिहास आज से कोई एक हजार वर्ष से अधिक पुराना है। थांगका आम तौर पर रेश्मी कपड़े से स्क्राँल के रुप में सज्जित किये जाते हैं, थांगका में तिब्बती जाति के धर्मों, इतिहास और सामाजिक जीवन जैसे विविधतापूर्ण विषयों का चित्रण किया जाता है, यह चित्रकला सचमुच तिब्बती जातीय विश्वकोष के नाम से विश्वविख्यात है, इतना ही नहीं, तिब्बती जातीय जनता इस चित्र कला को अपनी निधि समझती आयी है। इधर सालों में केंद्रीय सरकार ने थांगका के संरक्षण में लगातार ज्यादा पूंजी जुटाई हैं, ताकि यह मूल्यवान जातीय निधि अच्छी तरह प्रदर्शित कर विश्व में अपना स्थान बना सके। आज के इस कार्यक्रम में हम आप को कढाई दस्तकार मिग्मा त्सेरिंग की ड्रिगुंग थांगका की कशीदा करने की दुनिया देखने ले चलते हैं।
हम तिब्बत की राजधानी ल्हासा शहर से कार चलाकर कोई दो घंटे में मेड्रोगुंगका कांऊटी के निमाच्यांगरा टाऊनशिप पहुंच गये। हालांकि यह निमाच्यांगरा टाऊनशिप बड़े बड़े पर्वतों से घिरा हुआ है, पर ऐसे बड़े पर्वतों के घेरे में अवस्थित इस टाऊनशिप में मिग्मा त्सेरिंग जैसे दस्तकार थांगका की कढाई कला का विरासत के रुप में ग्रहण करने के लिये फिर भी जी जान से प्रयास करते हैं । जब हम उन के स्ट्रडियो में प्रविष्ट हुए हैं , तो हम तत्काल दृश्य से एकदम चमत्कृत रह गये हैं।
"इस थांगका की पूरी ऊंचाई 120 मीटर है और चौड़ाई कोई 80 मीटर है। उस में मुख्यतः बुद्ध की मूर्तियां कढ़ायी जाती हैं। जब हम ने एक बड़ी बुद्ध मूर्ति की ओर इशारा करते हुए प्रश्न पेश किया, तो उन्होंने जवाब में कहा कि मात्र यह मूर्ति 36 मीटर ऊंची है और बुद्ध का कान कोई दो मीटर लम्बा भी है।"
मेड्रोगुंगका कांऊटी कमेटी के प्रचार विभाग के प्रभारी रिगज़ि़न ड्रोल्मा ने बड़े गर्व से हमें इस विशाल थांगका और उस के निर्माता मिग्मा त्सेरिंग से अवगत करा दिया। मिग्मा त्सेरिंग का जन्म 1975 में इस मेड्रोगुंगका कांऊटी में हुआ, वे राष्ट्रीय स्तरीय गैर भौतिक सांस्कृतिक विरासत ड्रिगुंग कशीदा थांगका का छैठी पीढी का उत्तराधिकारी हैं। वे अपने पचपन में ही मामा से थांगका कढाई कौशल से सीखने लगे। 2001 में उन्हों ने अपनी पत्नी के साथ ल्हासा शहर में एक थांगका दुकान खोली। शुरु में वे मुख्य रुप से बुद्ध की मूर्तियों से सुसजित थांगका तैयार कर बेचते थे, साल में लगभग तीन लाख य्वान की आय कमा सकते थे। 2004 में ल्हासा शहर की यांगपाचिंग मठ ने मिग्मा त्सेरिंग को एक थांगका बनाने का काम सौपा। उसी समय से उन के मन में दुनिया में सब से विशाल थांगका कढाने का विचार आया। मिग्मा त्सेरिंग का कहना है:
"सच कहूं, पहले हमने इतना विशाल थांगका बनाने का काम कभी नहीं देखा था, यह मेरे लिये पहली बार जरुर ही नहीं, एक बड़ी चुनौति भी है। इसलिये समूची डिजाइन से लेकर बुद्ध मूर्ति के चित्रण तक और हरेक भाग की कढाई से तमाम भागों की जोड़ तक के सभी काम खुद अपनी बुद्धिमत्ता पर निर्भर हैं, बाकी शिष्य मेरे निर्देशन में काम करते है।"
थांगका बनाने की पहली क्रिया पैटर्न की डिजाइन ही है, यह एक सब से महत्वपूर्ण कड़ी है। परिपक्व डिजाइन निश्चित किये जाने के बाद कढाई का काम शुरु किया जा सकता है। मिग्मा त्सेरिंग ने संजीदगी के साथ दिमाग लड़ाने के बाद यह फैसला कर लिया है कि एक ऐसा दस वर्ग मीटर विशाल थांगका, जिस पर 19 बुद्ध मूर्तियां और 12 जानवरों की आकृतियां कढायी जाएंगी, तैयार किया जायेगा और उसे ड्रिगुंग काग्यू चिनपो का नाम दिया। रिगज़िन ड्रोल्मा ने हमें इसी नाम से अवगत कराते हुए कहा:
"ड्रिगुंग काग्यू का उल्लेख क्यों किया जाता है, क्योंकि ड्रिगुंग काग्यू तिब्बती लामा बौद्ध धर्म की एक शाखा है, जबकि थांगका काग्यू शाखा के ड्रिगुंग काग्यू की गिनती में आता है। चिनपो का अर्थ है कि ड्रिगुंग काग्यू शाखा के बहुत ज्यादा विश्वसनीय वरिष्ठ भिक्षुओं के चित्र एक ही थांगका में चित्रित कर प्रदर्शित किया जाता है।"