अखिल- दोस्तों, संसार का सबसे दुखी प्राणी कौन हैं? मेरे ख्याल से वो है.. जो हर समय दूसरों से तुलना करता है और ईष्र्या करता है।
ओशो ने बड़ी अच्छी बात कही थी—गनीमत है कि आदमी सिर्फ दूसरे आदमियों से ही ईष्र्या करता है, तुलना करता है, पेड़ों की हरियाली, मोर के पंखों की खूबसूरती और कोयल की आवाज से नहीं करता। प्रकृति की दूसरी तमाम चीजें व्यक्ति को बेचैन नहीं करतीं। लेकिन अपने जैसे दूसरे व्यक्ति की हर चीज उसे अपने से बेहतर लगती है। ईष्र्या व्यक्ति के अंदर की एक सोच भर नहीं होती, वह जीने की एक प्रक्रिया बन जाती है। हर वक्त दिमाग में तुलना चलती है, उसके पास यह बेहतर क्यों? यह बुखार की तरह शरीर को जकड़ सोचने-समझने की शक्ति कुंद कर देती है। आत्म-विश्वास हाथ से छूटने लगता है और जिंदगी से बस शिकायतें ही शिकायतें रह जाती हैं। यह मानव स्वभाव है कि उसे दूसरों की तरक्की रास नहीं आती। उसे लगता है कि उसके अलावा बाकी सभी उससे बेहतर हाल में हैं। पर जिस समय व्यक्ति इस सोच को जिंदगी का सार बना लेता है, वह अपनी तरक्की खुद रोक देता है। उसकी ऊर्जा तुलना में खर्च होने लगती है। उसे लगता है कि वह बेचारा है।
जर्मनी के प्रसिद्ध चिंतक मार्क वॉल कहते हैं कि ईष्र्या के बिना जीवन जीना एक कला है, जो व्यक्ति को सीखनी पड़ती है। जिसने यह सीख लिया और अपनी जीवन पद्धति बना ली, उसकी जिंदगी आसान, सहज और आशा से पूर्ण हो जाती है। ओशो ने ईष्र्या के संबंध में एक अर्थपूर्ण कहानी बताई है। एक असंतुष्ट और ईष्र्यालु व्यक्ति को लगता है कि वह सबसे ज्यादा दुखी है। वह रोज ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे उसके कष्टों से मुक्ति दे दे, बदले में वह किसी और का कष्ट भोगने को तैयार है। आखिरकार एक दिन उन्होंने उस व्यक्ति से कह दिया कि वह अगले दिन अपने कष्टों की पोटली बनाकर सुबह मंदिर पहुंच जाए। अगले दिन खुशी-खुशी वह अपने कष्टों की पोटली लिए मंदिर पहुंचता है । लेकिन यह क्या? उसकी तरह ना जाने कितने व्यक्ति अपने-अपने कष्टों की पोटली सहित पहुंचे हुए हैं। ईश्वर कहते हैं—आप सब अपनी पोटली दीवार के किनारे रख दें। और जिसे जो पोटली सही लगे, उठा ले। उस व्यक्ति ने लपक कर वापस अपनी ही पोटली उठा ली। सिर्फ उसने नहीं, सबने ऐसा ही किया। ऐसा इसलिए, क्योंकि दूसरों के कष्टों की पोटली पर तो उनकी नजर पहली बार गई थी। दूसरों की पोटलियां भारी थीं। उनके कष्ट भी नए थे। अपने कष्ट तो परिचित थे। ज्यादातर खुद के बुलाए हुए थे।
अमेरिका की क्लीनिकल साइको-लॉजिस्ट डॉ. मरियम लेपार्ड ने अपनी पुस्तक 'लाइफ विदाउट जेलेसी' में लिखा है—किसी की सफलता से ईष्र्या करना अपने आपको संकुचित करके सोचना है। एक व्यक्ति कभी किसी दूसरे की सफलता पर डाका नहीं डाल सकता। सफलता एक virus की तरह होती है, जिसके जितने संपर्क में रहेंगे, उतना ही लाभ मिलेगा। मरियम ने सालों तक विभिन्न आयु वर्ग के स्त्री-पुरुष संबंधों पर research किया है। उनका मानना है कि जहां रिश्तों के बीच ईष्र्या के बीज पड़ते हैं, नींव कमजोर होनी शुरू हो जाती है। ईष्र्या रिश्तों में से ईमानदारी को खत्म कर देती है। वे तो parents को भी यही सलाह देती हैं कि अपने बच्चों की तुलना किसी दूसरे से ना करें।