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संडे की मस्ती 2014-06-08
2014-06-09 11:07:00 cri

अखिल- भाई सादिक जी.... अपनी प्रतिक्रिया भेजने और मजेदार चार लाइनें भेजने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद । बाल दिवस पर आप द्वारा की गई चर्चा और प्रतिक्रिया बेहद सटीक और सही लगी। आपका एक बार फिर धन्यवाद।

लिली- सादिक जी ने एक जोक भी भेजा हैं। आइए.. सुनते है....

बॉस अपनी सेक्रेटरी से- तुम आज फिर आधे घंटे देर से आयी हो, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि यहां पर काम कितने बजे से शुरू होता है?

सेक्रेटरी बोली- मालूम नहीं सर, जब भी मैं यहां आती हूं तो लोगों को काम करते हुए ही पाती हूं।

अखिल- हां हां हां.... बहुत खुब सादिक भाई। मजा आ गया आपका जोक सुनकर। चलिए... दोस्तों, अब बढ़ते हैं अगले पत्र की तरफ जिसे भेजा है केसिंगा, ओडिशा से हमारे भाई सुरेश अग्रवाल जी ने। भाई सुरेश जी लिखते हैं..... देश-दुनिया की तमाम ख़बरों के बाद पेश साप्ताहिक "सण्डे की मस्ती" आज भी मस्त-मस्त रही। कार्यक्रम की शुरुआत में सन 1925 में अन्तर्राष्ट्रीय बालदिवस की शुरुआत से लेकर इसे दुनिया के विभिन्न भागों में अलग-अलग तिथियों पर मनाये जाने सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई। शंघाई में एक व्यक्ति की ऐसी तिकड़म कि उसने दस लाख की कार महज़ दस रुपये में ख़रीद ली, सुनने में भले ही अटपटी लगती हो, शख़्श की बुध्दिमत्ता की तो दाद देनी ही होगी। शादी वाले चमत्कारी वटवृक्ष की कहानी सुन कर कोई हैरानी इसलिये नहीं हुई क्योंकि इस तरह की मान्यताएं भारत में आम हैं। हाँ, पेइचिंग के उस कारोबारी का किस्सा ज़रूर अज़ीब लगा कि जिसे अपनी शादी की तयशुदा डेट तक याद नहीं रही। धन्य है आज का आधुनिक दौर कि जिसमें इन्सान पर काम का प्रेशर इतना बढ़ गया है कि उसे अपनी शादी तक की सुध नहीं रहती। आज के अंक में अखिलजी की हिन्दी और अंग्रेज़ी के अल्पज्ञान वाली कविता सुन कर हमें अपना भाषा-ज्ञान परखने का सुनहरी मौक़ा मिल गया। "सु" और "कु" का अन्तर समझा तो हँसते-हँसते पेट फूल गया। वैसे पहले दस फिर बीस और अंत में पचास रुपये में बन्दर पकड़ कर लाने की बात मार्केटिंग कला की अच्छी सीख कही जा सकती है। आज के चुटकुलों में "पड़ौसन को रोज़ देख तो सकते हैं, पर उसे ला नहीं सकते" चुटकुला सबसे अच्छा लगा। माता-पिता द्वारा बेटी और बेटे को दी जाने वाली सीख में भी पक्षपात वाली लाइनें कड़वी, पर सत्य के काफी करीब पायी गईं। सर्वोपरि कार्यक्रम में श्रोताओं की दिलचस्प प्रतिक्रियाओं को समुचित स्थान दिया जाना भी अच्छा लगा।

आगे भाई सुरेश जी लिखते हैं..... मैं दिल से आभारी हूँ भाई सादिक़ आज़मी का कि कार्यक्रमों पर स्वयं उत्कृष्ट टिप्पणियां प्रेषित करने के बावजूद मेरी प्रतिक्रियाओं की सराहना करते हैं। धन्यवाद।

अखिल- भाई सुरेश अग्रवाल जी....अपनी प्रतिक्रिया भेजने और कार्यक्रम की चर्चा करने हेतु आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। हमें खुशी होती हैं जब हमारे श्रोता दोस्त हमारे कार्यक्रमों के साथ-साथ एक दूसरों की भी सरहाना करते है। हम खुशकिस्मत हैं कि सीआरआई को आप जैसे श्रोता मिलें हैं। धन्यवाद एक बार फिर आपका।

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