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पांचवां दिन 15 अगस्त
2009-08-17 19:08:00

सुबह नाश्ता करके हम त हुंग प्रिफेक्चर में रुईली के पास ही युन्नान की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा पर स्थित लुंगछवान काऊंटी पहुंचे.यहां कई अल्पसंख्यक जातियां चिंगफो ,अछांग ली शु ,ताई ,त आंग आदि रहती हैं किंतु मुख्य जनजाति चिंगफो है.इस काऊंटी की कुल जनसंख्या 178541 है.यहां चीन म्यनमार का एक मुख्य पोर्ट है जिस का प्रयोग लोगों के आने-जाने और आयात-निर्यात दोनों के लिए किया जाता है.यहां थोड़ी देर रुकने और कुछ म्यनमार निवासियों ,पोर्ट के अधिकारी अफसरों के साथ बात करने के बाद हम युन्नान चिंगफो गार्डन देखने गए.त हुंग प्रिफेक्चर की लुंगछवान काऊंटी में 221 हैक्टर में फैला यह पार्क पाकृतिक दृश्य,पर्यटन,चिंगफो जनजाति के रीति रिवाज, विशेष भोजन,नृत्य आदि के लिए प्रसिद्ध है.बाग में अंदर घुसते है पंक्तिबद्ध सात प्राचीन वृक्ष दिखाई पड़ते हैं.चिंगफो जनजाति की मान्यता है कि इन में से पहला बड़ा पेड़ मां है और बाकी उस की बेटियां हैं.जनजातियों में प्रकृति के उपादानों की पूजा सामान्य बात है.क्योंकि वे प्रकृति पर अत्यधिक निर्भर करते हैं और उस के संरक्षण की भावना उन की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा होती है.बाग में ही चिंगफो जाति का छोटा सा गांव है,जहां पर चिंगफो जाति की महिलाओं ने पारंपरिक परिधान में चावल की शराब के साथ और पारंपरिक संगीत के साथ हमारा स्वागत किया.गांव में प्रवेश करने के बाद काफी देर तक हम लोग उन का पारंपरिक नृत्य देखते रहे,फिर उन के विशेष खाने का आन्नद उठाया.उन का परिधान,खाना और खाने का तरीका देख कर लगा,यह जनजाति इतनी अलग और फिर भी भारतीय तौर तरीकों के साथ इतनी समानता..केले के पत्तों पर भात,सब्जी और सबसे अजीब बात....हाथ से खाना....सारे चीन में खाने का यह तरीका कहीं नहीं मिलेगा और दक्षिण भारत में केले के पत्तों पर भात खाना आम रिवाज़ है और सारे भारत में खाना हाथ से खाया जाता है,चाहे चम्मच आदि का प्रयोग अब होता है,किंतु किसी भी ठेठ भारतीय से पूछ लीजिए,हाथों से खाना खा कर उसे जो तृप्ति मिलती है वह चम्मच आदि के साथ नहीं. तो क्या चिंगफो जनजाति का भारत की जाति के साथ कोई संबंध है या यह केवल संयोग है या जरुरत से उपजी एक जैसी परंपरा....अंतर केवल इतना है इन के खाने में शराब और मांस आवश्यक है।ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि चिंगफों जनजाति के पूर्वजों का छियोंग और ती जनजाति के साथ गहरा संबंध रहा है.वे सीकांग-तिब्बति पठार के दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र में एक साथ रहते थे.बाद में वे धीरे-धीरे युन्नान प्रांत के उत्तरी-पश्चिमी भाग में नुच्यांग नदी के पश्चिम में स्थानांतरित हो गए.स्थानीय लोगों के साथ इन नए मेहमानों को शुनछवानमान( शुनछवान आक्रमणकारी) कहा जाने लगा.15वीं,16वीं सदी में युद्ध और आपसी लड़ाई से बचने के लिए ये लगातार पश्चिम की ओर स्थानांतरित होते रहे और अंत में तहुंग में आ कर बस गए.और यहां तआंग,अछांग ,लीशु और हान जाति के साथ मिल कर रहने लगे.भारत की किसी भी जाति के साथ इन का कभी कोई संबंध नहीं रहा.

नृत्य करने वालो में स्त्री,पुरुष,बच्चे सब शामिल थे.मैंने एक दो युवा लड़कियों से बात की तो पता लगा कि वे सब विद्यार्थी हैं और इस समय क्योंकि स्कूलों में छुटिटयां हैं और कोई खास काम नहीं है तो इसलिए अपनी जाति के पारंपरिक परिधान पहन कर नात गाने का आन्नद उठा रही हैं अफांग और फांग 16 और 15 वर्ष की हैं और स्कूल में पढ़ती हैं,लूसी केवल चौदह वर्ष की है और अगले वर्ष वह हाईस्कूल में पहुंच जाएगी,उसे अंग्रेजी पढ़ने का शौक है और बीए करने के बाद उस की इच्छा है कि वह मीडिया में काम करेगी. उस ने बताया कि उस की जाति के सभी घरों में टीवी,फोन,मोबाईल फोन आदि सब सुविधांए हैं.जनजाति की नई पीढ़ी गांव में अटक कर नहीं रहना चाहती,चीन की सुधार और खुलेपन की नीति ने इन के जीवन में विकास के जो बीज बोए हैं उस से सपने देखने और उन्हें पूरा करने का हौसंला इन के मन में मजबूती के साथ पैदा हुआ है।

जैसाकि यहां अक्सर होता है अचानक धूमधाम से बारिश ने मल्हार गाना शुरु कर दिया.अगला पड़ाव चिंगफो जाति के उत्सव को मनाने के लिए बनाए गए चौक में था.यहां हर वर्ष हजारों लोग इक्कठे हो कर चिंगफो जनजाति के त्योहार मनाते हैं.इस के बाद हम रास्ते में ताई जनजाति के सरदार के महल में रुके .लुआंग ह काऊंटी में सारे क्षेत्र पर ताई राजा का शासन चलता था.1875 में ब्रिटिश अधिकारियों के साथ वार्ता का एक चित्र भी अंदर गैलरी में लगा हुआ है जिस में ताई राजा और ब्रिटिश अधिकारी के पीछे फोटो में खड़े हथियारबंद ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिक हैं..यहीं पर हम ने पारंपरिक चीनी संगीत उपकरण हू लू स( घीए से बना एक संगीत उपकरण,बीन की तरह का )बनाने वाले खानदानी परिवार को देखा और हू लू स बनाने की प्रकिया की जानकारी हासिल की.

पिछले चार दिनों से जब से हम इस क्षेत्र में हैं,हमारी हर कदम पर मदद करने में युन्नान रेडियों के साथियों का भरपूर साथ रहा,चार दिनों में ही हम उन के साथ ऐसे घुल मिल गए कि पता ही नहीं चला और न हम ने ध्यान दिया कि कैसे अपने काम,घरबार को छोड़ कर वे दिन रात हमारी सुविधाओं का ध्यान रखने में लगे रहे.यही नहीं रुईली से वे दो घंटे हमारे साथ सफर करके यहां तक हमें छोड़ने आए.उन से विदा लेते समय यह एहसास भी हुआ कि यदि वे लोग हमारी तरह बेंजिग आते तो क्या हम लोग उन की इतनी मदद कर पाते.....

.थोड़ी देर यहां रुक कर अब हमारा सफर शुरु हुआ थनचुंग के लिए....पहाड़ी रास्ता,लगातार होती बारिश और चारों ओर वर्षावनों की सघन हरित चादर...ऐसा लगता रहा कि हम शायद धरती पर नहीं हैं..क्या प्रकृति इतनी सुंदर और मेहरबान हो सकती है...रह-रह कर लगातार वे दिन कल्पना में घूमने लगे,जब भारत में हिमाचल में लगभग ऐसे ही दृष्य देखने को मिलते थे...लगभग चार घंटे के बाद हम थनचुंग पहुंचे और सारे रास्ते बारिश और चारों ओर फैली हरियाली का भरपूर आन्नद उठाते रहे....मन करता है यहीं रह जाएं...सब के मन में यही चाह थी.....केवल चाह..शायद बड़े विशाल और कंकरीट के शहरों से बाहर निकल कर प्रकृति की गोद में पहुंच कर मनुष्य की संवेदना फिर पैनी हो जाती है.और प्रकृति के साथ अपने संबंधों की स्वाभाविक चाह मुखर होने लगती है....

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