दोस्तो , आज यानी 23 मई को तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति की 60वीं वर्षगांठ का दिवस है । चीनी हान और तिब्बती जातियों की परम्पराओं के अनुसार साठ वर्ष को एक पूरी पुनरावृति मानी जाती है । तिब्बत की प्रथम पुनरावृति का सिंहावलोकन करते हुए लोगों ने यह निचोड़ निकाला है कि एकता व स्थिरता सुख है , जबकि फूट व दंगा मुसीबत ही है ।
तिब्बती जनता दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों की जनती की ही तरह शांतिपूर्ण , स्थायी और सुखमय जीवन बिताना चाहती है , देश का मालिक बनने , राजकीय मामलों , तिब्बती और अपने जातीय मामलों से निपटने का अधिकार प्राप्त करने को इच्छुक है । प्रथम साठ सालों में तिब्बत की विभिन्न जातियों की जनता ने शांतिपूर्ण मुक्ति के जरिये साम्राज्यवादी शक्तियों को पूरी तरह देश से बाहर निकाल दिया है , समूचे देश की सभी जातियों की जनता के साथ राजकीय प्रभुसत्ता और मर्यादे का उपभोग कर लिया है । जनवादी सुधार के जरिये सभी तिब्बती जनता ने बराबर सामाजिक स्थान और राजनीतिक अधिकार प्राप्त कर लिया है , अपने विकल्प से समाजवादी सामाजिक व्यवस्था और लोकतंत्र राजनीति स्थापित कर ली है , केंद्रीय सरकार की अभिरुचि और तिब्बती जनता के कठोर परिश्रम के माध्यम से तिब्बत को एक विकसित, लोकतंत्र और सभ्यतापूर्ण समाजवादी समाज का रुप दिया है । अब तिब्बत के आर्थिक व सामाजिक विकास में बेहतरीन प्रवृति नजर आयी है , तिब्बती जनता का जीवन स्तर भी निरंतर उन्नत हो गया है।
फलतः पिछले साठ सालों में साधारण तिब्बती जनता के जीवन में जमीन आसमान का भारी परिवर्तन भी आया है ।
यह मेरे घर की तिब्बती स्टाइल की बैठक है और वह यूरोपीय शैली की है । 77 वर्षीय तिब्बती बुजु्र्ग येशे लोड्रो सछ्वान प्रांत से आये पर्यटकों को बड़े मजे से अपना सुखमय जीवन बता रहे थे ।
उन्हों ने आगे कहा कि मुक्ति से पहले मैं पाकोर सड़क के एक अमीर परिवार का भूदास था , उस समय न मेरा कोई स्थिर ठिकाना था और न कोई ईंट , पेट भर खाना तो और दूर रहा । पर आज शहर वासी ही नहीं , गांव वासियों को भी चावल और साग सब्जियां खाने को मिल गयी हैं , जीवन में सचमुच भी बड़ा सुधार हुआ ।
बुजुर्ग येशे लो़ड्रो का जन्म एक भूदास परिवार में हुआ था । अपने बचपन से ही उन्हें भूदासी का काम करना पड़ा । 1951 में तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के बाद उन्होंने तिब्बत जातीय कार्यक्रम स्कूल में पढ़ा , फिर स्नातक होने के बाद वे बड़े गर्व से तिब्बत के इतिहास में प्रथम खेप का यातायात पुलिसमैन बने । सेवा से निवृत होने के बाद उन्होंने फिर अपने घर में एक परिवार होटल खोला ।
अब मेरा मकान अतीत के कुलीन परिवारों के मकानों से भी कहीं शानदार है , और तो और हर माह में मुझे 3650 य्वान से अधिक पेंशन भी मिलती है , ये सब के सब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की देन ही है । इसलिये मैं पर्यटकों को अपने घर बुलाकर शारीरिक स्वतंत्रता से वंचित एक गुलाम से देश का मालिक बनने की अपनी आपबीती सुनाना चाहता हूं , ताकि वे अच्छी तरह तिब्बत का इतिहास समझ सके , क्योंकि मैं इस इतिहास का साक्षी हूं ।
81 वर्षीय डोर्ज त्सेटेन तिब्बती इतिहास का साक्षी भी हैं । वे एक प्रवासी तिब्बती हैं , 1959 में तिब्बत को छोड़कर बाहर गये , फिर 1999 में देश लौटकर ल्हासा में स्थिर रुप से बस गये । 1959 में तिब्बत में दंगा फसाद हुआ , उन्हें मुट्ठी भर के उपरी प्रतिक्रियावादियों के उकसावे में भारत जाकर चालीस साल का दूभर जीवन बिताना पड़ा ।
उन्होंने याद करते हुए कहा कि तत्कालीन समाज एकदम उथल पुथल होने लगा , हान जाति के बारे तरह तरह अफवाहें हर जगह सुनने को मिलीं ।बहुत ज्यादा स्थानीय लोग बाहर फरार होने लगे । वहां पहुंचने के बाद हमें पता चला कि कुलीनों ने अपने जीवन का बंदोबस्त कब से ही कर लिया , मात्र हम जैसे साधारण लोगों के पास कुछ भी न था , गर्मी मौसम और भिन्न आहार व भाषा होने की वजह से हमारा जीवन बहुत कठिन था ।
कठिन जीवन के शिकंजे में तिब्बती देभबंधुओं को अपनी जम्मभूमि की खूब याद आती थी , वे वहां पर बड़ी सावधानी से रेडियो और पत्रपत्रिका आदि मीडिया के माध्यम से तिब्बत के बारे खबरें जुटायीं । 1985 में वे अपने रिश्तेदारों से मिलने तिब्बत लौट आये , तिब्बत में हुए परिवर्तन पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ।
80 वाले दशक से लेकर अब तक दो हजार से अधिक तिब्बती देशबंधु स्थिर रुप से रहने तिब्बत लौट आये । स्वदेश लौटने के बाद उन्हें अपने मकान , रोजगारी और वेतन जैसी सुविधाएं उपलब्ध ही नहीं , उन में से कुछ लोग जन प्रतिनिधि सभा का प्रतिनिधि और राजनीतिक सलाहकार सम्मेलन की स्थायी कमेटी का सदस्य भी चुने ।
जैसा कि डोर्ज त्सेटेन ने ठीक कहा कि पिछले 60 सालों में तिब्बती जनता के जीवन में उल्लेखनीय सुधार आया है , इस के साथ ही उन के धर्मों का सम्मान व संरक्षण भी उपलब्ध हुआ है । वर्तमान में तिब्बत की विभिन्न स्तरीय सरकारों की अनुमति से एक हजार सात सौ से अधिक धार्मिक स्थल मरम्मत कर खुल गये हैं और 46 हजार भिक्षु और भिक्षुणी वहां पर रहती हैं । धार्मिक अनुयायी मुक्त रुप से मठों में भगवान बुद्ध की पूजा कर सकते हैं और अपनी मर्जी से भिक्षुओं को अपने घर बुला लेते है ।