भारतीय विदेश मंत्रालय ने 20 मार्च को एक वक्तव्य जारी कर लीबिया पर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस आदि पश्चिमी देशों के हवाई हमले पर खेद जताया। लोकमतों का कहना है कि इस से जाहिर है कि भारत ने कू़टनीतिक तौर पर अमेरिका आदि पश्चिमी देशों से दूरी बढ़ाई है।
मीडिया के अनुसार कुछ पश्चिमी देशों के द्वारा लीबिया पर फौजी हमले बोले जाने से गंभीर मानवीय संकट उत्पन्न होने के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने 20 तारीख के दोपहरबाद अपने एक वक्तव्य में कहा कि भारत लीबिया में हो रहे हिंसक मुठभेड़ और मानवनीय संकट पर कड़ी नजर रख रही है और उस ने हवाई हमलों पर खेद प्रकट किया। भारतीय विदेश मंत्रालय के वक्तव्य में बलपूर्वक कहा गया है कि लीबिया संकट के समाधान में संयुक्त राष्ट्र संघ और संबंधित क्षेत्रीय संगठनों की मुख्य भूमिका अदा की जानी चाहिए।
भारत के इस रवैये पर उस के देश के भीतर और विश्व लोकमतों में प्रतिक्रिया हुई। लोकमतों का ध्यान आया है कि 2005 में भारत और अमेरिका के बीच नागरिक न्यूक्लियर करार पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद दोनों देशों की कूटनीति नजदीकी आ रही है, बहुत से अन्तरराष्ट्रीय मामलों पर भारत खुले तौर पर अमेरिका से असहमत बहुत कम दिखता है। लेकिन अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में लीबिया में नोन फ्लाई जोन की स्थापना के सवाल पर भारत ने मत नहीं डाला जिस से साबित हुआ है कि भारत ने इस सवाल पर पश्चिमी देशों के रूख पर गंभीरतापूर्वक अपना मत सुरक्षित कर रखा है। विश्लेषकों का कहना है कि भारत ने इसलिए लीबिया पर फौजी हमले के सवाल पर पश्चिमी देशों का विरोध किया, क्योंकि जहां एक तरफ वह देश के हित में नीति अपनाता है और वहीं भारत की कांग्रेस सरकार घरेलू राजनीतिक दबाव में अपनी विदेश नीति में समन्वन भी कर रही है।
मौजूदा उत्तर पूर्व अफ्रीकी संकट के कारण लीबिया में भारत के आर्थिक हित बुरी तर प्रभावित हुए, बीस हजार से अधिक भारतीय मजदूर लीबिया में फंस गए और उन्हें स्वदेश लौटाने के लिए भारत सरकार को माल जहाज और विमान किराये पर लेने से भारी धनराशि देनी पड़ी, फिर भी यह काम अभी तक पूरा नहीं हो पाया और इसे लेकर देश के भीतर सरकार की आलोचना की आवाज लगातार उठती आयी। इस के अलावा लीबिया में कुछ भारतीय कारोबारों की अनुबंध परियोजनाएं भी बीच में रूकनी पड़ी तथा भारतीय कंपनियों को भारी नुकसान पहुंचा है। इस हालत ने भारतियों को इराक युद्ध के दौरान भारत को लगी भारी क्षति की याद दिलायी। एक टीवी टिप्पणीकार ने टीवी कार्यक्रम में याद करते हुए कहा कि इराक युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में भारतियों को इराक में अपना करियर छोड़कर स्वदेश लौटना पड़ा था और अपनी आर्थिक क्षति के लिए उन्हें अब तक कोई भी मुआवजा नहीं मिली । टीवी टिप्पणीकार ने कहा कि तत्यों से व्यक्त हुआ है कि इधर के सालों में पश्चिमी देशों ने क्रमशः इराक, कोसोवो और अफगानिस्तान में जो फौजी कार्यवाहियां की हैं, उन से इन स्थानों को स्वतंत्रता और शांति तो नहीं मिली, बल्कि वहां की स्थिति और अधिक बिगा़ड़ दी गयी है और बहुतेरे बेगुनाह लोगों को जान माल की क्षति पहुंची है। मौजूदा उत्तर पूर्वी अफ्रीका संकट से फिर एक बार साबित हुआ है कि पश्चिम के फौजी हमलों से केवल लीबिया की स्थिति बेकाबू बनायी जाएगी और अंत में आम लोगों को नुकसान झेलना पड़ेगा, जिन में वहां कार्यरत भारतीय कारोबार और मजदूर शामिल हैं। भारतीय लोकमत का मानना है कि भारत अपने हितों के आधार पर दूसरे देश के अन्दरूनीय मामले में दखलंदाजी करने के पक्ष में नहीं है और पश्चिमी देशों द्वारा नैतिक पंच के रूप में कथित तानाशाही देश के खिलाफ आसानी से बल का प्रयोग करने का समर्थन नहीं करता। इस रूख पर भारत के सभी राजनीतिक दल सहमत हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि सुरक्षा परिषद में लीबिया में नोन फ्लाई जोन की स्थापना पर भारत अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों के पक्ष में नहीं खड़ा है, इस का कांग्रेस सरकार की अमेरिका के नजदीक आने की नीति की वजह से देश में राजनीतिक दबाव बढ़ने से भी संबंध है। 2004 में सत्ता पर आने के बाद कांग्रेस सरकार ने पिछली सरकार की कूटनीति में हेरफेर कर अमेरिका के निकट जाने की नीति अपनायी। उस ने 2005 में अमेरिका के साथ नागरिक न्यूक्तियर करार संपन्न किया। 2008 के सितम्बर में अमेरिका की कोशिश से न्यूक्लियर आपूर्ति समूह ने भारत पर 35 साल तक लगे सप्लाई प्रतिबंध को हटाया । प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने दो सत्र के अमेरिकी राष्ट्रपतियों के साथ भेंटवार्ताओं में दोनों देशों की समान लोकतंत्र प्रणाली व साझे हितों की लम्बी चौड़ी बातें कीं. जिस से भारत के भीतर कुछ राजनीतिक दल काफी रूठ गये। यहां तक वाम पार्टियों ने 2008 के जून माह में कांग्रेस पार्टी का अपना समर्थन छोड़ने की घोषणा भी की, इस से कांग्रेस को संसद में विश्वास मतदान में हारने का खतना उठाना भी पड़ा। कुछ पार्टियों ने कहा कि भारत पश्चिमी देश नहीं है, उसे अपने को पश्चिमी खेमे का भी नहीं मानना चाहिए। हालांकि नागरिक न्यूक्लियर करार से भारत को कुछ लाभ मिला है, लेकिन अमेरिका के साथ अधिक नजदीक आने के कारण भारत के पड़ोसी देशों, तीसरी दुनिया तथा रूस को भी शंका और चौकन्ना पैदा हुई। इसलिए भारत में कांग्रेस सरकार से विदेश नीति पर पुनः समीक्षा करने की अपील की जा रही है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस सरकार को कूटनीतिक मामलों पर और अधिक सावधानी बरतनी पड़ रही है और विदेशों केसाथ मामलों के निपटारे में विपक्षी दलों के रूखों का ज्यादा ख्याल करने लगी है।
विश्लेषकों का मानना है कि भारत विभिन्न कालों में अपनी विदेश नीतियों में समन्वन कर सकता है, लेकिन वह हमेशा स्वतंत्र दिशा पर कायम रहता है और वह पश्चिमी देशों का पिछलगू नहीं बनेगा।