चीन के भीतरी मंगोलिया स्वायत्त प्रदेश में एक गायिका रहती है, नाम है ददमा । उनके गाये दो गीत "सुन्दर घास मैदान है मेरा घर" तथा "मैं आयी हूँ घास मैदान से " पिछले कोई 40 से भी ज्यादा वर्षों से उनकी अपनी मंगोल जाति के बीच ही नहीं, समूचे चीन में प्रसिद्ध रहे हैं । उन के विशेष मंगोल रस वाले गीत सुनने वालों के सामने घास मैदान की हरियाली ले आते हैं । 1998 में ददमा ने मस्तिष्क से रक्तस्राव की पीड़ा के बाद संगीत मंच से विदा ली लेकिन ठीक एक वर्ष बाद वे इस दुःख से उबरकर एक बार फिर लोगों के सामने उपस्थित थीं। यह एक आश्चर्य ही था ।
56 वर्षीय ददमा का संबंध चीन के भीतरी मंगोलिया स्वायत्त प्रदेश के आलाशान प्रिफैकचर के एक चरवाहे परिवार से है। उन के माता-पिता भी मंगोलिया के घास मैदानों के मशहूर गायक गायिका रहे। ददमा की गायन प्रतिभा बचपन से ही जाहिर होने लगी थी । 13 वर्ष की उम्र में उन्हें स्थानीय कला मंडल में प्रवेश मिला और तभी उन का कला जीवन आरम्भ हुआ । 2 बरस बाद उन्होंने मंगोलिया स्वायत्त प्रदेश कला स्कूल में दाखिला लिया और विशेष तौर पर संगीत सीखने लगीं । 1964 में वे चीनी संगीत महाविद्यालय में प्रवेश पाने वाली चीन की प्रथम अल्पसंख्यक छात्रा बनीं और वहां जातीय संगीत का अध्ययन शुरू किया। संगीत महाविद्यालय से स्नातक होने के बाद ददमा अपने जन्म स्थान वापस लौटीं और गायिका के रूप में जीना शुरू किया ।
चीनी संगीत महाविद्यालय से स्नातक होने के बाद के 10 साल उन्होंने भीतरी मंगोलिया स्वायत्त प्रदेश के नाट्य मंडल तथा नृत्य-गान मंडल में बिताये । 1978 में 31 की उम्र पर पहुंचने तक वे "सुन्दर घास मैदान है मेरा घर" से देश भर में मशहूर हो चली थीं।
1982 में ददमा पेइचिंग पहुंचीं और चीन के सुप्रसिद्ध संगीत मंडल --चीनी केंद्रीय जातीय नृत्य-गान मंडल की एकल गायिका बन गयीं । इसके बाद उन की गायन शैली दिन ब दिन परिपक्व होती गई । वे मंगोल जाति के परंपरागत गीत गाने के अलावा दूसरे कला गीत व पश्चिमी नाट्य गीत भी गाने लगीं । इस बीच उन्होंने चीन में आयोजित विभिन्न संगीत प्रतियोगिताओं में कई पुरस्कार भी हासिल किये और उन के अनेक गीत चीन में लोकप्रिय हुए । चीन के एक संगीत दूत के रूप में ददमा ने चीनी कला मंडल के साथ अमरीका ,जापान, फिलिपींस आदि 20 से ज्यादा देशों व क्षेत्रों की यात्रा की । उन की प्रस्तुतियों को विभिन्न देशों के दर्शकों की वाहवाही मिली और लोगों ने उन्हें संगीत मंच के हरे-भरे पेड़ के नाम से पुकारा ।
अपने कला-जीवन की चर्चा करते हुए सुश्री ददमा कहती हैं कि चीनी केंद्रीय जातीय नृत्य-गान मंडल ने उन्हें एक बहुत अच्छा मौका दिया क्यों कि यह मंडल चीन के सर्वश्रेष्ठ कलाकारों को एकत्र करने वाला मंच है । उन्होंने कहा कि चीनी केंद्रीय जातीय नृत्य-गान मंडल एक बहुजातीय समूह है । मंगोल जाति की एक प्रतिनिधि की हैसियत से उन्हें इस में स्थान हासिल हुआ । इस तरह उन्हें मंगोल जाति के संगीतकारों की ही नहीं, चीनी दर्शकों की मान्यता भी प्राप्त हुई। खुद को राजधानी पेइचिंग से मिले सुअवसर को वे मूल्यवान समझती हैं।
1998 में ददमा ने चीनी प्रतिनिधि मंडल के साथ जापान की यात्रा की । उनकी जापानी मंच पर दोबारा अपने दो मशहूर गीत गाने की योजना थी। पर संगीत सभा के दौरान पहला गीत गाने पर ही उन्हें एकदम जोर का सिर दर्द हुआ कि वाणी अशक्त हो गयी और माइक्रोफ़ोन थामे रखने वाले दायां हाथ भी सुन्न पड़ गया । इस पल उन्होंने अपने दिल से कहा कि शायद मेरी तबियत ठीक नहीं और एक अनुभवी गायिका की तरह बड़ी कोशिश कर दूसरा गीत भी गाया पर मंच से धीरे-धीरे नीचे आते हुए वे पूरी तरह सुन्न पड़ चुकी थीं। पांच दिनों की बेहोशी के बाद जब वे जगीं तो उन के शरीर का दायां भाग पक्षाघात से पीड़ित था। उन के लिए बोलना भी मुश्किल था, तब वे गातीं कैसे ?
पर दुर्भाग्य ददमा को नहीं हरा पाया । गीत गाने की इतनी शौकीन वे कभी गायन को नहीं छोड़ सकती थीं । उन्होंने बताया कि वे जहां कहीं जातीं अपने चहेतों से मिलतीं और सोचतीं कि अगर जरा सी भी आशा हुई , वे उन्हें निराश नहीं करेंगी और वे अपने प्रिय काम को नहीं त्यागेंगी।
ददमा ने लम्बे समय तक पक्षाघात से संघर्ष किया। उन का घर 13वीं मंजिल पर स्थित है। लेकिन पक्षाघात से ग्रस्त अपनी टांग को अभ्यास कराने के लिए वे लिफ़्ट का प्रयोग न करतीं और पहली मंजिल से पैदल ही सीढ़ियों के जरिये अपने घर पहुंचतीं । अपने बीमार हाथों की उंगलियों को फिर से पूरी तरह से हरकत में लाने के लिए वे हर दिन छोटे-छोटे बीज पकड़ने का अभ्यास करतीं। शुरू-शुरू में उन्हें एक बीज पकड़ने में कई घंटे लगे पर अंततः वे एक के बाद एक सैकड़ों बीज पकड़ने में समर्थ हुईं । शारीरिक अभ्यास के साथ-साथ ददमा ने गीत गाना नहीं त्यागा । वे सुबह अस्पताल जातीं और दोपहर घर में गाने का अभ्यास करतीं। इस तरह नौ महीनों की कोशिशों के बाद ददमा फिर एक बार खड़ी हो पाईं और अपने प्रिय गायन मंच पर वापस लौटीं ।
1999 के राष्ट्रीय दिवस पर ददमा वृद्ध कलाकार मंडल में शामिल हुईं। और जब वे मंच पर प्रकट हुईं तो दर्शकों ने उन्हें देखकर हार्दिक प्रसन्नता से तालियां बजायीं । इसने जाहिर है उन्हें प्रेरित ही किया । 2001 में 53 वर्ष की आयु में ददमा ने अपना नया एलबम "चरवाहा" जारी किया और ठीक एक वर्ष बाद उनका एक और एलबम "ददमा की लाल छतरी" भी आया ।
बीमारी पर विजय पाने के बाद ददमा को अपने काम से और अधिक प्रेम हो गया । उन का विचार है कि उन्हें एक नया जीवन मिला है जो उनके लिए बहुत मूल्यवान है। किसी सामान्य व्यक्ति की तुलना में विकलांग ददमा कहीं ज्यादा काम करने की आशा जताती हैं।
वर्ष 2002 में ददमा ने भीतरी मंगोलिया स्वायत्त प्रदेश में एक कला विद्यालय खोला । उन के यह विद्यालय खोलने का उद्देश्य अपने जन्मस्थान के बच्चों में छुटपन से ही संगीत प्रतिभा निखार कर उन्हें पेशेवर संगीत शिक्षा पाने के लिए तैयार करना है । उन्होंने कहा कि उनकी एक और अभिलाषा है राजधानी पेइचिंग और क्वांगचो शहर में अपनी संगीत सभा का आयोजन। कामना है, ददमा की आशा पूरी हो ।