चीन में गायन और नाच दोनों में व्यवसायिक तौर पर निपुण कलाकारों में चू मिंग-ईन की गिनती पहले पायदान पर है।उन्हें चीन-अफ्रीकी मैत्री की प्रचारक की संज्ञा भी दी गई है। किसी समारोह में वह कभी किसी भारतीय सुन्दरी के रूप में या कभी किसी अफ्रीकी युवती के रूप में गाते-नाचते दिखाई दीं,जिस से दर्शकों का उत्साह अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया।
चू मिंग-ईन 1966 में पेइचिंग नृत्य-कालेज से स्नातक होकर सीधे पेइचिंग स्थित चीन के प्रतिष्ठित पूर्वी नाचगान मंडली में भर्ती हुईं।उन का मानना है कि एशिया,अफ्रीका और लातिन अमरीका की सांस्कृतिक कला एक प्रकार की गाने के साथ-साथ नाचने की कला भी है,न कि सरल नाच-गान की।उन समय उन की मंडली में कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं था,जिसे नाच-गान दोनों में महारत हासिल हो।उन्हों ने सोचा कि अगर वह अपने जन्मजात मधुर गले और सर्वमान्य नृत्य-कौशल का साथ-साथ इस्तेमाल करे,तो मंडली की इस कमी की पूर्ति हो सकेगी।बाद में उन्हों ने निर्णय लिया कि गायन व नृत्य दोनों में अपने को निखारा जाए।
चू मिंग-ईन को देश के लगभग सभी क्षेत्रों से ही नहीं,बल्कि बहुत सी विदेशी सरकारों की ओर से भी अभिनय करने के आमंत्रण मिले हैं। उन्हों ने विदेशों में स्थानीय भाषाओं में स्थानीय गीत गाकर अपार प्रशंसा प्राप्त की।उन्हों ने कहा कि मिश्र में《पैसबूसा》नामक एक स्थानीय लोकगीत गाने से उन के साथ जो हुआ,वह जिन्दगी भर नहीं भूल सकतीं।उन का कहना हैः
"《पैसबूसा》मिश्री लोगों में काफी प्रचलित एक लोकगीत है।`पैसबूसा`मिश्र की एक प्रकार की मिठाई का नाम है।काहिरा के मरकजी इलाके में स्थित एक बड़े थिएटर में जब मैं ने मंच पर यह गीत गाना शुरू किया,तो दर्शकों की ओर से तालबद्ध तालियों की आवाज सुनाई देने लगी।गीत गाने के बाद मुझे जाने की अनुमति नहीं दी गई।मंच पर मुझे यों ही नाचगान के कम से कम 4 कार्यक्रम प्रस्तुत करने पड़े और अंत में मैं ने फिर एक बार《पैसबूसा》गाया।गाते समय मैं अपनी आवाज बिल्कुल नहीं सुन पाई,जो आवाज सुनाई दी,वह पूरी तरह दर्शकों की मेरे साथ गाने की थी,सारे दर्शक मेरे स्वर में स्वर मिला कर गा रहे थे।हमारी मंडली के नेता ने बाद में मुझे बताया कि यह गीत गाने के दौरान दर्शकों ने 32 बार तालियां बजा कर मेरा स्वागत किया।"
चू मिंग-ईन को अफ्रीकी संस्कृति व कला से विशेष लगाव है।वह अफ्रीका में स्थानीय संगीत,गीत व नृत्य सीखने की बड़ी इच्छा रखती थीं।लेकिन उस समय अफ्रीका में कोई संबंधित कालेज या स्कूल भी नहीं था।अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह चीनी केंद्रीय संगीत प्रतिष्ठान के एक प्रसिद्ध प्रोफेसर की सलाह पर अमरीका गईं,जहां अफ्रीकी संगीत के बारे में सुव्यवस्थित शिक्षा दी जाती है।
1985 में चू मिंग-ईन ने अमरीका के 3 प्रमुख संगीत कालेजों में से एक बर्कले संगीत कालेज में भर्ती होकर सुव्यवस्थित रूप से अफ्रीकी संगीत सीखना शुरू किया।
निस्संदेह वहां भाषा सब से बड़ी मुश्किल थी। कक्षा में अध्यापक अक्सर बिना रूके फर्राटे दार अंग्रेजी में ढेरों जानकारी देते थे।इन जानकारियों को अच्छी तरह समझने के लिए उन्हों ने दूसरे छात्रों से कई गुना अधिक मेहनत की और अंत में सभी पाठ्यक्रमों में 90 या इस से अधिक प्रतिशत अंक प्राप्त किए।उन्हों ने कहा कि अमरीका में सुव्यवस्थित शिक्षा पाने के बाद अफ्रीकी संगीत के प्रति उन की समझ और गहरी हुई है।उन का कहना हैः
"मैं समझती हूं कि अफ्रीका कला का जन्मस्थान कहा जा सकता है।वहां के गीत-संगीत की लय अपेक्षाकृत सरल है,तो भी हरेक गीत की अपनी-अपनी विशेषता है।मैं कोशिश में हूं कि अफ्रीकी संगीत को चीनी संगीत के साथ जोड़ कर अपने ढंग का निराला संगीत बनाया जाए।हो सकता है कि वह संगीत एक दिन दुनिया में लोकप्रिय हो जाए।मुझे उस दिन के आने की प्रतीक्षा है।"
अमरीका से स्वदेश लौटने के बाद चू मिंग-ईन ने पेइचिंग में अपने नाम पर एक सांस्कृतिक विकास कंपनी कायम की,जो विशेष रूप से चीन और विदेशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का काम संभालती है। इस समय चू मिंग-ईन अफ्रीकी संस्कृति व कला के सुव्यवस्थित अनुसंधान के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान की स्थापना की तैयारी में व्यस्त हैं।उन्हों ने कहाः
"स्थापित होने वाले इस प्रतिष्ठान में हरेक अफ्रीकी देश की संस्कृति व कला का अनुसंधान-कार्य चलेगा।हमारा उद्देश्य अनुसंधान के आधार पर अफ्रीका का बाहरी व भीतरी सौंदर्य़ दर्शाना है।
चीन-अफ्रीका मैत्री की गवाह और प्रचारक के रूप में चू मिंग-ईन अक्सर अफीका जाती हैं।उन के अनुसार इस समय अफ्रीका में चीनियों की संख्या बहुत ज्यादा है।स्थानीय लोगों के साथ रेस्तरां चलाने के अलावा वे लोग अन्य धंधे भी करते हैं।