पोले का पुत्र भी अपने पिता जी का हुनर सीखना चाहता था । वह सुबह से रात तक पिताजी की किताब पढ़ता रटता रहा , किताब के एक एक शब्द को दिमाग में याद कर दिया गया । एक दिन पुत्र ने पिता से बड़ी खुशी से कहा
" पापा , आप का हुनर मुझे भी आया है ।"
पुत्र की बातें सुन कर पोले ने जरा मुस्कराया और कहा
"बड़ी खुशी की बात है , तुम जा कर एक तेज दौड़ने वाला घोड़ा ढूंढ लाओ , मुझे दिखाओ कि तुम्हारा हुनर कैसा है ।"
पुत्र ने बड़ी इतमीनान से हां भरा और घोड़ा पहचानने वाली किताब साथ लेकर घर से निकला । रास्ते में भी वह किताब में लिखे वाक्य की याद करने का उद्योग करता रहाः "एक दिन में हजार मील दौड़ने वाले घोड़े की यह विशेषता है , उस का माथा आगे निकला हुआ , दोनों आंखों की पुतलियां बड़ी बड़ी है और चार खुर उभरी हुई मदिरा रोटी की भांति लगता है।"
पुत्र इस तरह राह चलता चलता तलाश भी करता रहा , जब कभी किसी जानवर से मिला , तो वह किताब में अंकित चित्र से उस जानवर से मिलाने की कोशिश की , लेकिन इस जानवर का शक्ल किताब के चित्र की इस शर्त से मिलता हो , तो इस शर्त से नहीं तथा उस जानवर का शक्ल उस शर्त से मिल जाता है , तो इस शर्त से नहीं । चलते चलते पुत्र अन्त में एक तालाब के पास पहुंचा , उस ने वहां एक मेढ़क देखने को मिला . मेढ़क की दोनों आंखें उभरी हुई हैं और कुर्रर कुर्रर करते नहीं थकता है । पुत्र ने मेढ़क के शक्ल सूरत को किताब के चित्र से मिलाते हुए बड़े गौर से पहचानने का यत्न किया , बड़ी देर के बाद उस ने सावधानी से मेढ़क को कागज में लपेट लिया और बड़ी प्रसन्नता के साथ वह घर आया । उस ने पिता से कहा,
" हजार मील दौड़ सकने वाला घोड़ा बेहद कम है , आप ने इस के लिए शर्तें लगायी हैं , वे बहुत मुश्किल से पूरी की जा सकती है । मैं ने लाख प्रयत्न करने के बाद ही तालाब के किनारे एक ढूंढ निकाला है , उस के माथा और आंखें आप की किताब में दिए गए चित्र से मिलता जुलता है. लेकिन उस के खुर मदिरा रोटी की भांति नहीं लगते हैं ।"
पोले ने कागज का टुकड़ा खोल कर देखा , तो बड़ी दुखी से हंस पड़ा , "बेटा , तुम जो घोड़ा ढूंढ लाया हो , वह दौड़ना नहीं जानता है , उसे महज कूदना फूदना आता है । तुम उस पर सवार नहीं कर सकते हो ।"
कथा की शिक्षा है कि किस के अध्य़यन या काम में केवल किताब की याद करने अथवा दूसरे के अनुभव रटने से काम नहीं बनता है।