2008-06-30 15:42:52

तिब्बत का जनवादी सुधार

पटेल नगर दिल्ली के नरेश कुमार का सवाल हैं कि तिब्बत में जनवादी सुधार किस प्रकार किया गया?

तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के बाद साम्राज्यवादियों और प्रतिक्रियावादी बड़े-बड़े भूदास-

मालिकों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले उच्च वर्ग के प्रतिक्रियावादी गुट ने 10 मार्च 1959 को ल्हासा में भारी तादाद में प्रतिक्रांतिकारी सैन्य शक्ति एकत्रित करके "तिब्बत की स्वाधीनता"का एलान कर दिया।19 मार्च की रात को इस गुट ने ल्हासा स्थित जन-मुक्ति सेना की यूनिटों पर चौतरफ़ा रूप से हमला कर दिया।जब जन मुक्ति सेना के तिब्बत सैनिक क्षेत्रीय कमान क सैनिकों के धैर्य का बांध टूटने लगा,तो उन्हों ने 20 मार्च को सुबह दस बजे इस देशद्रोही गुट के विद्रोह को कुचलने के लिए आदेश का पालन करते हुए कार्यवाही शुरू कर दी।दो दिनों से अधिक समय की लड़ाई के बाद ल्हासा शहर में विद्रोह को कुचल दिया गया।

उधर जब विद्रोह का दमन किया जा रहा था उस समय भूदासों ने जनवादी सुधार की मांग की,जिस का उच्च वर्ग के प्रगतिशील व देशभक्त लोगों ने भी बड़ी सक्रियता से समर्थन किया।यही नहीं,जनवादी सुधार करने की स्थिति परिपक्कव होती गई।जन-समुदाय की मांग का पूर्ण समर्थन करते हुए केंद्र सरकार जनवादी सुधार करने का फैसला किया तथा जुलाई 1959 में तिब्बत स्वायत्त प्रदेश की तैयारी कमेटी के दूसरे पूर्ण अधिवेशन में इस संबंध में प्रस्ताव पास किए गए।शीघ्र ही जनवादी सुधार के लिए एक जोरदार जन आन्दोलन समूचे प्रदेश में फैल गया।

जनवादी सुधार को दो मंजिलों में पूरा किया गया।पहली मंजिल में विद्रोह को विरोध करने,

गुलामी का विरोध करने तथा जमीन का लगान कम करने औऱ कर्जे पर ली गई रकम पर ब्याज कम करने के लिए एक आन्दोलन छेड़ा गया।कृषि उत्पादक क्षेत्रों में उन जागीरदारों व उन के एजेंटों की जमीन के बारे में जिन्हों ने विद्रोह में भाग लिया था, "जो जोते वह फसल का मालिक "की नीति अपनाई गई।जिन जागीरदारों व उन के एजेंटों ने विद्रोह में भाग नहीं लिया था उन के प्रति यह नीति अपनाई गई :80 प्रतिशत फसल काश्तकार को मिले औऱ बाकी जमीन के माकिल को।इस बीच घरेलू दासों को आजाद कर दिया गया और वे मजदूरी पर काम करने वाले श्रमिक बन गए।

जिन जागीरदारों ने विद्रोह में भाग लिया था उन के द्वारा मेहनतकश लोगों को दिए गए तमाम कर्जे खत्म कर दिए गए।जिन जागीरदारों ने विद्रोह में भाग नहीं लिया था उन के द्वारा मेहनतकश लोगों को 1958 से पहले दिए गए तमाम कर्जे खत्म कर दिए गए और 1959 में दिए गए कर्जों का ब्याज घटाकर एक प्रतिशत प्रति मास कर दिया गया।चरागाह क्षेत्रों में देशद्रोही पशु-मालिकों के पशुओं को उन चरवाहों को दे दिया गया जो पहले उन का पालन-पोषण करते थे तथा इन पशुओं से होने वाली आमदनी भी उन्हीं को मिलने लगी।जिन पशु-मालिकों ने विद्रोह में भाग नहीं लिया था उन्हें अपने पशुधन का मालिक बने रहने की इजाजत दे दी गई,लेकिन उन के द्वारा किए जाने वाले शोषण में कटौती करके चरवाहों की आमदनी बढा दी गई।

जनवादी सुधार की दूसरी मंजिल में भूमि का बंटवारा किया गया।जिन जागीरदारों व उन के एजेंटों ने विद्रोह में भाग लिया था उन के उत्पादन के साधनों को जब्त कर लिया गया तथा उन्हें गरीब किसानों व चरवाहों में बांट दिया गया।लेकिन जिन जागीरदारों व उन के एजेंटों ने विद्रोह में भाग नहीं लिया था उन के उत्पादन के साधनों को राज्य द्वारा खरीद लिया गया औऱ गरीब किसानो व चरवाहों में बांट दिया गया।भूदास-मालिक वर्ग के लोगों को भी उत्पादन के साधनों का एक हिस्सा दिया गया।

बौद्ध विहारों के बडे-ब़डे लामा भूदास-मालिक भी थे,जो गरीब लामाओं तथा किसानों व चरवाहों का उत्पीड़न व शोषण करते थे।इसलिए उन में भी जनवादी सुधार किया गया,ताकि उन लोगों को प्रहार का निशाना बनाया जा सके,जिन्हों ने देशद्रोहपूर्ण सरगरमियां और प्रतिक्रांतिकारी साजिशे की थी,तथा सामन्ती विशेषाधिकार,उत्पीड़न व शोषण को खत्म किया जा सके।

धार्मिक विश्वास की आजादी को पहले की तरह बरकरार रखा गया।

1959 तक समूचे प्रदेश में जनवादी सुधार का काम पूरा हो गया।भूदास राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से मुक्त हो गए।"जो जोते वह फसल का मालिक" की नीति,लगान व ब्याज कम करने की नीति तथा सूदखोरी पर पाबंदी लगाने की नीति के फलस्वरूप जन-समुदाय को भारी लाभ हुआ।हर आदमी के हिस्से में औसतन 750 किलोग्राम अनाज आया और 0.23 हेक्टर जमीन आई।इस के बाद तिब्बती जनता के लिए गुलामी व दुखमय जीवन अतीत की वस्तु बन गया।

दस लाख भूदास उठ खड़े हुए।