2009-03-23 09:48:21

तिब्बती थांका चित्र के चित्रकार दैम्पा रबटन

थांका चीन की तिब्बती संस्कृति में एक विशेष चित्र कला है। चित्रकार हाथों से कपड़ों, रेशम व कागज़ के ऊपर रंगीन चित्र बनाते हैं। ये चित्र हजारों वर्षों के बाद भी नए दिखायी पड़ते है। चूंकि थांका में विविधतापूर्ण विषय होते हैं, इसलिए, थांका तिब्बती इतिहास का जीवाश्म माना जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी विकास के बाद अब चीन के तिब्बत स्वायत प्रदेश में अनेक थांका कला के महान विद्वान रहते हैं। तिब्बती विश्वविद्यालय के 67 वर्षीय प्रोफेसर दैम्पा रबटन उन में से एक हैं।

तिब्बत में लोग थांका के चित्रकारों को लारेपा कह कर पुकारते हैं, जिस का अर्थ है बुद्ध या देवता का चित्र बनाने वाला । आम तौर पर लारोपा अपने पिता जी से कला सीखते हैं। यदि वह मंदिर में रहता है, तो अपने गुरु से सीखता है। दैम्पा रबटन के दादा जी ट्सेरींग 13वें दलाई लामा के चित्रकार थे, उन के पिता जी कलजांग नोर्ब एक डिजाइनर थे। पारिवारिक वातावरण से प्रभावित होकर बचपन से ही दैम्पा रबटन को कला का गहरा शौकीन हो गया। जब वह 11 साल के थे, तो वह तिब्बती परम्परागत चित्र की सभी तकनीक व रंगने की तकनीक हासिल कर चुके थे और अपने नाखून पर मनुष्य, पक्षी, पेड़, पहाड़ और नदी आदि के जटिल चित्र बना सकते थे।

15 साल की उम्र में उन के पिता जी ने दैम्पा रबटन को सेरा मठ में भेजा जहां वह तत्कालीन मशहूर भिक्षु चाम्पा नगावांग के शिक्षु बन गए। वहां, उन्होंने तिब्बती भाषा, बौद्ध धर्म की विचारधारा तथा चित्र कला सीखी। श्री कलजांग नोर्ब का प्रारंभिक विचार था कि उन का बेटा एक वरिष्ठ भिक्षु बने। तीन वर्ष बाद दैम्पा रबटन मठ से बाहर आए,और इस अनुभव ने बाद में उन की कला तकनीक के लिए गहरा आधार निश्चित किया। उन के अनुसार:"मठ में सीखने के अनुभव ने मेरे आजीवन चित्र कला कार्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। मैंने न केवल तिब्बती थांका का इतिहास, तकनीक और किस्मों को जाना है, बल्कि साथ ही इस ज्ञान ने चित्र बनाने में भी मुझे बड़ी मदद दी है।"

थांका तकनीक के प्रसार के तरीकों की चर्चा में श्री दैम्पा रबटन ने कहा कि तिब्बत के इतिहास में अनेक चित्रकार हुए हैं, लेकिन, हालांकि कुछ चित्रकारों का ज्ञान अच्छा हैं,लेकिन वे अच्छे चित्र नहीं बना सकते हैं। इसलिए, एक श्रेष्ठ थांका विद्वान बहुत कठिन से मिल पाता है।उन के अनुसार:"मिसाल के लिए, गुरु और शिक्षु के बीच आदान-प्रदान करते समय लोग केवल चित्र बनाने की तकनीक के प्रशिक्षण पर ज्यादा ध्यान देते हैं,और विचारधारा के ज्ञान के प्रसार को नजरअंदाज कर देते हैं। यह थांका चित्र के विकास में बाधा डालता है। पुराने तिब्बत की गश्या सरकार के दौरान, चित्रकारों का अपना संगठन होता था। उस समय लगभग दो सौ चित्रकार थे, जिन में से एक सौ थांका के चित्रकार थे।"

वर्ष 1959 में तिब्बत में लोकतांत्रिक रुपांतरण की नीति लागू होने के बाद चीन सरकार अल्पसंख्यक जातियों की सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण व विकास को बड़ा महत्व दे रही है।वर्ष 1985 में तिब्बती विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। जब विश्वविद्यालय के कला विभाग ने तिब्बती चित्र की कक्षा शुरु की, तो श्री दैम्पा रबटन ने पारम्परिक चित्र पढ़ाने का बोझ संभाला और औपचारिक रुप से तिब्बत के परम्परागत चित्र थांका को विश्वविद्यालय की कक्षा में शामिल किया।

हालांकि श्री दैम्पा रबटन तिब्बती परम्परागत चित्रकार के परिवार से हैं, लेकिन, विश्वविद्यालय की कक्षा में थांका चित्र कला को सिखाना उन के लिए एक कठिना समस्या है। दैम्पा रबटन ने अपनी चित्र की विचारधारा और अनेक वर्षों के वास्तविक अनुभवों के आधार पर पाठ्यक्रम की एक विशेष योजना बनायी, ताकि तिब्बती परम्परा चित्रकला का अध्ययन आधुनिक उच्च शिक्षा व्यवस्था से मेल खा सके। वर्ष 1996 में श्री दैम्पा रबटन ने तिब्बती चित्र कला नामक पुस्तक का संपादन किया , जिस में उन्होंने थांका बनाने की विशेष तकनीक को लिपिबद्ध किया, जो परम्परागत चित्र बनाने की तकनीक से भिन्न है। उन के अनुसार:"मेरा विचार है कि यह तिब्बत के इतिहास में जातीय श्रेष्ठ संस्कृति का संरक्षण व प्रसार करने वाली अभूतपूर्व कार्यवाई है। ये विद्यार्थी न केवल चित्र बना सकते हैं, बल्कि थांका कला के विकास, इतिहास तथा शाखाएं व विशेषताएं आदि विचारधारा से भी परिचित हैं।अब हमारे विश्वविद्यालय के इस विभाग में स्नातक व स्नातकोत्तर की उपाधि दी जाती है और बाद में हम डॉक्टर की डिग्री भी देंगे। इसलिए, तिब्बती थांका चित्र का बहुत उज्ज्वल भविष्य है। "

तिब्बत को बाहर की दुनिया के लिए खोलने के साथ-साथ, मानसिक संस्कृति के प्रति लोगों की खोज निरंतर उन्नत होती रही है। थांका सब से लोकप्रिय जातीय हस्तशिल्य बन चुका है। ज्यादा से ज्यादा युवक इस जातीय संस्कृति का प्रसार करने में शामिल हो रहे हैं। थांका व्यापार करने वाले व्यापारी पेनबा श्री दैम्पा रबटन के सब से अच्छे विद्यार्थियों में से एक हैं, और उन के द्वारा प्रशिक्षित किये गये अनेक लोक चित्रकारों में से भी एक हैं।वर्ष 1995 में, पेनबा ने थांका कला दुकान खोलकर व्यापार करना शुरु किया। थांका बेचने के साथ-साथ, उन्होंने अनेक शिक्षुओं को भी दाखिला किया। अब उन की दुकान में व्यापार बहुत अच्छा है। पेनबा के अनुसार:"यह दुकान 13 वर्ष से चल रही है। अधिकांश थांका ग्राहकों द्वारा समय से पहले ऑर्डर दिए जाते हैं। मेरे द्वारा बनाया गया यह चित्र खास तौर पर भीतरी पर्यटकों के लिए ऑर्डर पर बनाया गया है, जो 20 दिनों में पूरा होगा। इस का दाम 3000 चीनी य्वान से ज्यादा होगा। अब मेरे पास चार शिक्षु हैं, जिन में एक स्नातक हो गया है।"

वर्ष 2006 में थांका को प्रथम राष्ट्रीय स्तरीय गैर भौगोलिक सांस्कृतिक धरोहरों की नामसूची में शामिल किया गया है और श्री दैम्पा रबटन अदि कलाकारों को राष्ट्रीय स्तरीय कलाकार माना गया हैं। इस के साथ-साथ, खनिज व वनस्पति से परम्परागत चित्र बनाने के तरीके की बहाली करने के लिए उस वर्ष तिब्बती विश्वविद्यालय ने संबंधित विभागों के समर्थन से एक वैज्ञानिक अनुसंधान संस्था की स्थापना की और संबंधित कलाकारों से मुलाकात की और तकनीक सीखी। तिब्बती विश्वविद्यालय के कला विभाग के प्रोफ्सर न्गावांग चिगमे ने कहा:

"प्रोफेसर दैम्पा रबटन के नेतृत्व में वर्ष 1998 के मई माह में हम ने सफलता से सभी परम्परागत सामग्रियों का अनुसंधान किया और देश के संबंधित विशेषज्ञों की मान्यता भी पाई। अब देश तिब्बत की पुरानी इमारतों या पुरानी चित्रों की मरम्मत और संरक्षण करते समय हमारे द्वारा अनुसंधान की गयी सामग्रियों का इस्तेमाल करता है।"

विशेष कला तरीकों के इस्तेमाल से तिब्बती थांका हजारों वर्षों के बाद भी पहले की ही तरह नया और रंगीन दिखाया देता है। अच्छी तरह संरक्षन और प्रसार करने की वजह से थांका कला अपने विशेष आकर्षण के कारण मशहूर है।