2009-03-16 17:57:42

पचास वर्षों में तिब्बती जनता के जीवन में परिवर्तन

वर्ष 2009 में चीन के तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के जनवादी सुधार की 50वीं वर्षगांठ है । तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के समाज व अर्थतंत्र के सर्वांगीण विकास के चलते पचास वर्षों में तिब्बती किसान व चरवाहों के जीवन में भारी परिवर्तन आया है।

वर्ष 1959 में जनवादी सुधार किए जाने के पूर्व पुराने तिब्बत में सामंती भूदास व्यवस्था लागू थी । वर्ष 1946 में उत्तरी तिब्बत के घास मैदान में जन्मी तिब्बती दादी सोग्वे चोलगर ने सामंती भूदास व्यवस्था में 13 साल बिताए। भूदास दादी के बचपन का जीवन बहुत कठोर था ।

सामंती भूदास व्यवस्था वाले पुराने तिब्बत में भूदास की संतानों को भी भूदास बनना पड़ता था । इस तरह आठ वर्ष की सोग्वे चोलगर जागीरदारों की पशुपालन करने वाली भूदास बन गई । छुटपन में जागीरदार की मार-पीट और बुरी भाषा की उसे अभी भी याद है। वर्ष 1953 में उत्तरी तिब्बती घास मैदान भूकंप का शिकार बना इस की चर्चा में दादी सोग्वे चोलगर ने कहा:

"वर्ष 1953 में हमारे जन्मस्थान में भूकंप आया, अधिकांष तंबू नष्ट हो गए। उसी समय किसानों व चरवाहों के सामने जीवनयापन की गंभीर समस्या आ खड़ी हुई । तत्कालीन सामंती सरकार ने कर वसूलना रद्द नहीं किया, मुझे याद है कि हमारे घर में एकमात्र बचा घी छीन लिया गया था।"

दोस्तो, पुराने तिब्बत में सरकारी अधिकारियों, कुलीनों और मठों के उच्च स्तरीय भिक्षुओं के पास बहुत राजनीतिक व आर्थिक विशेष अधिकार थे । वर्ष 1959 में सारे तिब्बत के दो लाख 20 हज़ार हैक्टर खेती योग्य भूमि का 36.8 प्रतिशत मठों और उच्च स्तरीय भिक्षुओं के पास था, जबकि कुलीनों और जागीरदारों से गठित सरकारी अधिकारियों के पास अलग-अलग तौर पर 24 प्रतिशत व 38.9 प्रतिशत हिस्सा था । जागीरदारों में पीढ़ी दर पीढ़ी काम करने वाले पारिवारिक दासों और अन्य भूदासों को अपार काम करना पड़ता था और ज्यादा कर देना पड़ता था । तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के सामाजिक विज्ञान अकादमी के अनुसंधानकर्ता केल्ज़ांग येशे ने कहा :

"दस लाख भूदास पीढ़ी दर पीढ़ी सामंती भूदास व्यवस्था में जीवित साधन बन गए । उन के साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं किया जाता था । तिब्बत में जनवादी सुधार किए जाने के पूर्व ज़मीन, वन और जल संसाधन समेत सभी उत्पादन सामग्री तत्कालीन तिब्बत की जनसंख्या में पांच प्रतिशत भिक्षुओं व कुलीनों के पास थी । बाकी जनता के पास कुछ नहीं था ।"

सामंती भूदास व्यवस्था में जनता को क्रूर शोषण का सामना करना पड़ता था । विशेष कर राजनीतिक व धार्मिक मिश्रित व्यवस्था में धर्मों व मठों ने मानव शक्ति व संसाधन के अपार खर्च और लोगों के मानसिक शोषण से श्रमिकों की उत्पादन सक्रियता बांधी हुई थी । गत शताब्दी के मध्य में तिब्बत में कुल 2700 से ज्यादा मठ थे, जिन में एक लाख 20 हज़ार भिक्षु रहते थे, जो तत्कालीन तिब्बती जन संख्या का 12 प्रतिशत बनता था । करीब एक चौथाई पुरूष भिक्षु बने । इधर-ऊधर फैले हुए मठों, उच्च अनुपात वाले भिक्षुओं और अधिकाधिक धार्मिक गतिविधियों में बड़ी मात्रा में शक्ति संसाधन और अधिकांश संपत्ति का खर्च किया जाता था, जिस से लम्बे समय तक तिब्बत का विकास नही हुआ, आधूनिक उद्योग व वाणिज्य कारोबार, आधूनिक विज्ञान व तकनीक, शिक्षा, संस्कृति और स्वास्थ्य कार्य न के बराबर था । भूदास पर्याप्त कपड़े नहीं पहनते थेऔर उन्हें रोज़ भूख लगती थी । जीवन बहुत कठोर था और मृतकों की संख्या ज्यादा थी ।

वर्ष 1949 में चीन लोक गणराज्य की स्थापना हुई, जिस ने मुसीबत में फंसे तिब्बती जनता के लिए एक आशा की किरण दिखाई । वर्ष 1951 की 23 मई को चीन की केंद्र सरकार और तत्कालीन तिब्बती स्थानीय सरकार ने《तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के बारे में सिलसिलेवार सवालों पर समझौता》संपन्न किया और तिब्बत में शांतिपूर्ण मुक्ति साकार की गयी । चीन की केंद्र सरकार ने तिब्बत के इतिहास व वर्तमान स्थिति पर सोच-विचार कर《समझौते》में तिब्बत की सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने की आवश्यकता पर बल दिया और साथ ही कहा गया कि सुधार को सावधानी से किया जाना चाहिए। समझौते में निर्धारित किया गया कि तिब्बत की स्थानीय सरकार स्वचालित रूप से सुधार करेगी, अगर जनता सुधार करने वाला अनुरोध पेश करती है, तो स्थानीय सरकारी अधिकारियों के साथ सलाह मशविरे के जरिए उपाय खोज कर सवालों का समाधान करेगी ।

लेकिन तत्कालीन तिब्बत के उच्च स्तरीय प्रशासन ग्रुप के कुछ व्यक्तियों ने सुधार का विरोध किया । उन की कुचेष्टा थी कि तिब्बत में सदा सदैव सामंती भूदास व्यवस्था कायम रहे । दस मार्च 1959 में उन्होंने विदेशी चीन विरोधी शक्तियों के साथ मिल कर सशस्त्र विद्रोह किया, जिस का मकसद चीन का विभाजन करना, सामंती भूदास व्यवस्था बनाए रखना एवं जनवादी सुधार का विरोध करना था । देश के एकीकरण व तिब्बती जनता के मूल हितों की रक्षा के लिए केंद्र सरकार ने कदम उठाकर विद्रोह को शांत किया और तिब्बत की सामाजिक व्यवस्था का जनवादी सुधार किया । तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के सामाजिक विज्ञान अकादमी के अनुसंधानकर्ता श्री केल्ज़ांग येशे ने कहा:

"केंद्र सरकार ने विद्रोह शांत करने के साथ-साथ सुधार वाली नीति अपनायी। सर्व प्रथम विद्रोही क्षेत्रों में जनवादी सुधार किया गया, जहां विद्रोह नहीं हुआ था उन क्षेत्रों में कुछ समय बाद सुधार किया गया । मठों व धर्म के प्रति राजनीतिक एकीकरण की नीति अपनायी गई और राजनीति व धर्म को अलग किया गया, लेकिन उन की सामान्य धार्मिक गतिविधियों का संरक्षण किया गया। विद्रोह में भाग लेने वाले जागीरदारों की उत्पादन सामग्रियों को जब्त कर भूदासों में बांटा गया । केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई नीति तिब्बत की वास्तविक स्थिति के अनुसार है, इस का आम नागरिकों व मठों के भिक्षुओं ने सब ने समर्थन किया । तिब्बत में जनवादी सुधार दो साल के भीतर सही सलामत पूरा किया गया ।"

जनवादी सुधार ने सामंती जागीरदारों और भूदासों के बीच के संबंध को तोड़ा , दस लाख भूदास जमीन और अन्य उत्पादन संसाधन के मालिक बन गए, उन्होंने शारीरिक मुक्ति व धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता हासिल की और मानव बनने का हक प्राप्त किया । वह वर्ष 13 वर्षीय सोग्वे चोलगर की जिन्दगी में महत्वपूर्ण वर्ष था । सरकार की सहायता से उसे प्रथम बार स्कूल में दाखिला मिला और एक प्राइमरी स्कूल की छात्रा बन गयी । इस की चर्चा में तिब्बती दादी सोग्वे चोलगर ने कहा:

"वर्ष 1959 में हमारे जन्स्थान में विद्रोह को शांत करने वाली जन मुक्ति सेना के सैनिकों ने मुझे मुक्ति दी, कुछ समय बाद मुझे राजधानी ल्हासा में पढ़ने के लिए पहुंचाया गया और इस के बाद भीतरी इलाके में । मैं अधिकांश भूदासों के बच्चों की तरह स्कूल गयी और स्नातक होने के बाद मुझे रोज़गार मिला और बाद में सरकारी कर्मचारी बन गई और आधुनिक विश्व विद्यालयों में से एक की नेता भी बनी । यह सब सपना नहीं है, यह मेरी सच्ची कहानी है ।"