चुन पा गांव इसीलिये तिब्बत में एक मात्र मछुआ गांव माना जाता है , क्योंकि तिब्बत में पानी के अभाव के प्राकृतिक कारण अधिकांश तिब्बती जातीय लोग मछली खाना पसंद नहीं करते हैं , जब कि यहां पर रहने वाले चुन पा गांववासी का मुख्य खाद्य पदार्थ मछली ही है , यह इस गांव की विशेष पहचान ही है । तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के सामाजिक विज्ञान अकादमी के जातीय प्रतिष्ठान के अनुसंधानकर्ता छुंग ता ने इस का परिचय देते हुए कहा आम तौर पर कहा जाये , तो तिब्बती जाति में मछली खाने की परम्परा नहीं है । पर ऐतिहासिक ग्रंथ के अनुसार तिब्बत के कुछ क्षेत्रों , खासकर नद नदियों के तटों पर बसे गांव वासियों के पूर्वज मछली खाते थे , जी हां , तिब्बत का चुन पा गांव भी उन में से एक है । आज तिब्बत में सामाजिक विकास, खासकर बाहर के साथ आवाजाही बढने के चलते दूसरी जातियों की परम्पराएं और रहन सहन से धीरे धीरे तिब्बती वासों के रहन सहन भी प्रभावित होने लगे हैं ।
वास्तव में तिब्बती जाति में मछली नहीं खाने की परम्परा मुख्यतः बौद्ध धार्मिक संस्कृति के प्रभाव से उत्पन्न हुई है , तिब्बती लोग तिब्बत की सभी झीलें पवित्र मानते हैं , झील में नहाने या मछली पकड़कर खाने की किसी भी हरकत को झील का अपमान समझते हैं । पर चुन पा गांववासियों में मछली पकड़ने की परम्परा कैसे पैदा हुई । एक स्थानीय किम्वदंती में कहा गया है कि चुन पा गांववासियों में स्वर्ग राजा की सहमति से मछली पकड़ने और खाने की परम्परा पैदा हुई है। चुन पा गांव कमेटी के पूर्व प्रधान बुजुर्ग सोनान ने हमें इस रहस्यमय किम्वदंती सुनाते हुए कहा कभी एक समय में यहां की नद नदियों में मछलियां इतनी तेजी से बढ़ती गयीं कि नद नदियों में उन्हें समाया नहीं जा सकता था । मजबूर होकर बहुत सी मछलियां अस्तित्व रहने की गुंजाइश खोजने के लिये आकाश पर उड गयीं। धीरे धीरे आकाश पर मछलियां इतनी ज्यादा हो गयीं कि उन्हों ने सुर्य और चंद्रमा को भी ओझल होने दिया , परिणामस्वरूप पृथ्वी पर जितने भी ज्यादा प्राण धुप व रोशनी न मिलने पर एक के बाद एक मरने लगे । ऐसी स्थिति में स्वर्गराजा ने पृथ्वी पर आकर चुन पा गांव के पूर्वजों को मछली पकड़ने और खाने की इजाजत दे दी , साथ ही मछली खाने से उत्पन्न अपराधों को माफ करने को कहा । तब से यहां पर प्राण फिर पुनर्जीवित होने लगे और चुन पा गांववासियों की मछली पकड़ने व खाने की परम्परा आज तक भी प्रचलित रही ।