2007-12-24 10:18:10

ल्हासा में मंदिर मठों का दौरा

दोस्तो , जैसा कि आप जानते हैं कि चीन का तिब्बत स्वायत्त प्रदेश दक्षिण पश्चिम चीन स्थित छिंगहाई तिब्बत पठार पर एक रहमय भूमि पर खड़ा है , अनेक सालों से वह अपने विशेष अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य और रहस्यमय धार्मिक संस्कृति से जाना जाता रहा है और विभिन्न देशों के पर्यटकों को अपनी ओर खिंच लेता रहा है । जबकि तिब्बत स्वायत्त प्रदेश की राजधानी की हैसियस से ल्हासा शहर में अलग ढंग की धार्मिक संस्कृति के बारे में जानकारी जानना बहुत जरूरी है। तो आज के इस कार्यक्रम में हम आप के साथ ल्हासा शहर के चुमला खां और चह पंग इन दोनों सब से प्रसिद्ध मठों के दौरे पर ले चलते हैं ।

ल्हासा शहर में कदम रखते ही अलग ढंग के शांतिमय व निश्चिंत वातावरण का आभास होता है । शहर की सड़कों के दोनों किनारों पर लोग हाथ में सूत्र व मालाएं लिये घमते हुए दिखाई देते हैं । ल्हासा वासी इसे सूत्र कहते हैं , असल में यह ल्हासा शहर की एक प्रकार की धार्मिक संस्कृति के रूप में मानविय जीवन की एक अभिव्यक्ति है । वास्तव में तिब्बती पंचांग के अनुसार 15 अप्रैल को शाक्यमुनि का जन्म होने , बुद्ध बनने और निर्वाण होने का दिवस है , बाद में इसी दिवस के उपलक्ष में बौद्ध धार्मिक अनुयाइयों के बीच विविधतापूर्ण धार्मिक गतिविधियां चलाने की परम्परा बन गयी है , फिर पिछले हजारों सालों से यह परम्परा धीरे धीरे विकसित होकर आज के सूत्र का रूप ले चुका है ।

ल्हासा शहर में सूत्र पढ़ने के लिये तीन लाइनों का विकल्प किया जा सकता है । प्रथम लाइन तिब्बती भाषा में नांगकोर कहा जाता है , इस का अर्थ है भीतरी रिंग रोड ही है , इस रिंग रोड की कुल लम्बाई पांच सौ मीटर है यानी चुमलाखांड मठ के प्रमुख भवन का एक पूरा चक्कर लगाया जाता है । दूसरी लाइन को मध्यम रिंग रोड कहा जाता है , उस की कुल लम्बाई एक हजार मीटर है यानी वह चुमलाखांड मठ का एक चक्कर लगाया जाता है और तीसरी लाइन है लिन कोर यानी बाह्य रिंग रोड कहा जाता है , इस रिंग रोड की कुल लम्बाई पांच हजार मीटर है याना ल्हासा शहर के पुराने शहरीय क्षेत्र का एक चक्कर लगाया जाता है । उक्त तीन लाइनों से चुमलाखांड मठ का घनिष्ट रिश्ता होने से जाहिर है कि चुमलाखांड मठ तिब्बती लामा बौद्ध अनुयाइयों के दिल में महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है । तो फिर चुमलाखांड मठ इतना दर्शनीय स्थल कैसे बना है और लाखों करोड़ों अनुयायी हजारों मील का रास्ता तय कर पूजा करने क्यों आते है , आखिरकार इस में क्या रहस्य गर्भित है । तो यह रहस्य आज से कोई एक हजार तीन सौ साल से पहले के थांग राजवंश की राजकुमारी वन छंग की शादी से जुड़ा हुआ है । कहा जाता है कि ईस्वी सातवीं शताब्दी में थांग राजवंश की राजकुमारी वन छंग की शादी जब तत्कालीन तिब्बत के राजा सुंगचानकांगपू के साथ हुई , तो उस समय ल्हासा घासफूस उगने वाले तालाब के बीच अवस्थित था । यह स्थिति देखकर राजकुमारी वन छंग ने कहा कि ऊपर आकाश से देखा जाये , तो ल्हासा का आकार प्रकार एक लेटी राक्षसी मालूम पड़ता है , इस राक्षसी को वश में लाने के लिये उस के शरीर पर एक मठ की स्थापना की जरूरत है और चुमलाखाड ठीक इसी राक्षसी के हृदय पर ही है । अतः स्थानीय लोगों ने बकरियों से मिट्टी लादकर चुमलाखांड मठ का निर्माण कर दिया । राजकुमारी वन छंग ने अपने साथ लायी 12 वर्षिय शाक्यमुनि की सोना मूर्ति चुमलाखांड मठ में स्थापित कर दी , तब से चुमलाखांड मठ एकदम नामी होने लगा और उस ने तिब्बती लामा बौद्ध धार्मिक अनुयाइयों के दिल में तीर्थ स्थल के रूप में घर कर लिया ।

जब हमारे संवाददाता ल्हासा की सड़कों पर घूम रहे थे , तो अंगिनत तिब्बती लामा बौद्ध अनुयायी हजारों मील के रास्ते की परवाह न कर दंडवती करते हुए बड़ी चुमलाखांड जाते हुए दिखाई दे रहे थे । आम तौर पर वे अकल्पनीय परिश्रम कर के हर तीन कदम बढ़ने पर दंडवत करते है , इसी तरह जाते जाते बड़ी चुमलाखांड मठ तक पहुंचने में लगभग आधे साल से एक साल का समय लग जाता है । जब वे अपना गंतव्य स्थल पहुंचते हैं , तो उन के मुंह , हथलियां और घुटनें बहुत मैली नजर आती हैं , कुछों को लम्बा रास्ता तय करने में जख्मी भी होती है । हालांकि बाहर से वे ढीले ढाले व मैले नजर आते हैं , पर उन के हृदय से उगी निष्ठावान भावना और आत्मसंतोष से लोग बहुत प्रभावित होते हैं । शायद यह ही तिब्बत की अलग पहचान और अद्भुत दृश्य है ।