पुराने तिब्बत में सदियों से राजनीतिक व धार्मिक मिश्रण वाली सामंती जागीरदार तानाशाही लागू रहती थी, इस अंधेरी व्यवस्था के प्रतिनिधि दलाई लामा आदि उच्च वर्गीय धार्मिक व्यक्ति थे । तिब्बत की सामंती भूदास व्यवस्था, जो मध्य युग के यूरोप की राजनीतिक व्यवस्था से भी कहीं अधिक अंधेरी व क्रूरतापूर्ण थी, तिब्बत की विशाल पठारी भूमि पर हजार साल तक जारी रही थी।
तिब्बत फाइल संग्रहालय में सुरक्षित ऐतिहासिक सामग्रियों से जाहिर है कि पुराने तिब्बत में कुल जनसंख्या के मात्र 5 प्रतिशत के सरकारी अधिकारी, कुलीन वर्ग और उच्च वर्गीय भिक्षु जैसे भूदास-स्वामी तिब्बत के शतप्रतिशत की भूमि, चरगाहों, वनों, झील नदियों और अधिकांश मवेशियों पर काबिज थे ,जबकि कुल जनसंख्या के 95 प्रतिशत के भूदासों को भूदास-मालिक अपनी निजी संपत्ति मानकर उन्हें मनमाने ढंग से खरीदते बेचते थे, दूसरों को भेंट कर देते थे, कर्ज के एवज के रूप में देते थे और उन का विनिमय करते थे।
पुराने तिब्बत में भूदास भूदास-स्वामियों की निजी संपत्ति थी, भूदास- मालिक न केवल मनमाने ढंग से उन का प्रयोग कर सकते थे, जबरन कड़ा श्रम करवाते थे और भूदासों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पूरी तरह छीन लेते थे, साथ ही भूदास-स्वामी अपने जागीर में निजी जेल कायम कर सकते थे और भूदासों को आंखें कुरेदने, कान, हाथ और पांव काटने, शरीर से नसें चीड़कर निकालने तथा पानी में डुबो देने का क्रूरतापूर्ण जुल्म दिया जाता था।
शिन्हवा समाचार एजेंसी के पुराने पत्रकार श्री लिन थ्यान ने तिब्बतियों के मुंह से यह सुना था कि पुराने तिब्बत में भूदासों को यातना देने में लाल जंजीर का इस्तेमाल किया जाता था। जंजीर काला लोह से बनाया गया था, तो वह लाल रंग का कैसा हो गया?इस का रहस्य बताते हुए श्री लिन थ्यान ने कहाः
"असल में लाल जंजीर भारत से आयातित लोह-फलक से बनाया गया था, उसे आग में जलाने से जब लाल हो गया, तब उसे भूदास के पांव पर जकड़ा जाता था, जंजीर और पांव के बीच महज पतला बकरी चमड़ा लगाया गया। सभी जानते हैं कि लोहा आग से लाल जलाने के बाद कितना गर्म तपता है, उसे पांव पर जकड़ने से पांव गल सड़ जाता है और शीघ्र ही उस में से मवाद पड़ जाता है और इलाज नहीं मिलने पर लोग मर जाता है।"
तिब्बत के विधि संहिता में मनुष्य कई श्रेणियों में बंटते थे, जो लोग सर्वोच्च श्रेणी में थे, जिस की यदि किसी कारण हत्या की गयी, तो उस का मूल्य उस के शारीरिक वजन के बराबर भारी सोने का माना जाता था। जबकि निम्नत्तम श्रेणी में रहने वाले भूदास की हत्या की गयी, तो उस का मूल्य एक फूस की रस्सी के बराबर था। तिब्बती सामंती कुलीन वर्ग ने मनुष्य में इतने बड़े फर्क को भाग्य का फल बताया । चीनी तिब्बतविद्या अध्ययन केन्द्र के उप महा निदेशक गेलेक ने परिचय देते हुए कहाः
"पुराने तिब्बत में एक अस्थि-विधाता मत चलता था। इस मत के मुताबिक जागीरदारों व अभिजात वर्गों तथा भूदासों के बीच का अन्तर हड्डी के अनुसार तय किया जाता था। यानी भूदास की हड्डी काली होती थी और सदासदैव काली भी रहती थी । कोई लुहार हो, उस की हड्डी हमेशा काली रहती थी और वह निम्नत्तम और नीच होता था, यदि कोई कुलीन सज्जन हो, तो वह सदा कुलीन रहता था और अभिजात होता था।"
सदियों लम्बे इतिहास में तिब्बती जनता ने शानदार कला संस्कृति रची है । पोताला महल अब विश्व सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल कर सम्मानित किया गया । लेकिन इस महान वास्तु निर्माण के काम में शिरकत डिजाइनरों, शिल्पकारों और निर्माताओं का एक भी नाम भी ऐतिहासिक ग्रंथ में नहीं याद किया गया, वे सभी लोग अनामी बने। चीनी तिब्बतविद्या अध्ययन केन्द्र के उप शौधकर्ता सुश्री त्सेरिंग यांगत्जोन ने कहाः
"सामंती कुलीन वर्ग कहता था कि शिल्पकार और कारीगर ने पूर्वजन्म में कुकर्म किया था, इसलिए इस जन्म में उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। उन का सामाजिक स्थान बहुत ही निचा था, उन में से कोई भी प्रतिभाशाली लोग उभरे, तो भी वह कुलीन वर्ग में शामिल होने का हकदार नहीं था। पोताला महल हो, या अन्य अद्भुत तिब्बती मठ मंदिर हो, उन के निर्माता अखिर कौन थे, अब कोई भी नहीं जानता।"
इस लेख का दूसरा भाग अगली बार प्रस्तुत होगा, कृप्या इसे पढ़े।