तिब्बती जाति में चाय के पान में घी-चाय, दुध-चाय, नमकीन चाय और ताजा चाय प्रमुख है। घी-चाय तिब्बतियों में सब से लोकप्रिय है। घी-चाय तिब्बती भाषा में पासुमा कहलाती है अर्थात हिलायी गयी चाय। घी-चाय बनाने का तरीका सरल है। पहले चाय का गाढ़ा पानी बनाया जाएगा, चाय का पानी घी के बाल्टी में डाला जाएगा और उस में घी और नमक मिलाया जाएगा । फिर डंडे से दसियों बार हिलाया जाएगा ,जब पानी और दुध आपस में घुल मिल गया तो कड़ाहे में डाल कर आंच पर गर्म किया जाएगा , तभी जायकेदार घी-चाय तैयार हो गया ।
तिब्बती घी-चाय में घी का तेल होने के कारण गर्मी बहुत देता है जिस से ठंड से बचाया जा सकता है और पोषण भी बढ़ सकता है। वह सर्द पठारी इलाके के लिए अनुकूल पानजल होता है। इस के अलावा घी-चाय प्यास को बुझा भी सकती है।
लेकिन तिब्बतियों में घी-चाय पीने की कड़ी प्रथा है। जब मेहमान घर आया, तो मेजबान रंग रोगन अल्मारी में से साफ सुथरा प्याले निकाल कर नीची मेज पर रख देता है और घी-चाय से भरी केतली को हाथ में उठाए कई बार धीरे धीरे हिलाकर घी-चाय प्याले में उडेल डालता है ,फिर दोनों हाथों से थाम कर मेहमान को भेंट करता है । मेहमान आदरपूर्वक खड़ा रहता है और एक घूंट लेता है , मेजबान फिर प्याले में चाय डालता है और मेहमान फिर घूंट लेता है। इस तरह का सिलसिला चलता रहा । तभी मेजबान संतुष्ट हो जाता है कि उस ने मेहमाननवाजी निभाली है।
मेहमान आदर प्रकट करने के लिए एक सांस में पूरा प्याला घी-चाय पी सकता है और एक घूंट भी ले सकता है। लेकिन यह ठीक नहीं है कि वह केवल एक प्याला लेने के बाद छोड़ देता है। आम प्रथा के अनुसार मेहमान को कम से कम तीन प्याला लेना चाहिए।
तिब्बत क्षेत्र में गाय बकरी की बहुलता है और दुध के खाद्यपदार्थ भी विविध और बहुल होते हैं। जिन में से दही और दुध का कचरा अधिक लोकप्रिय है।
तिब्बती दही दो प्रकार के होते हैं। एक है परिशुद्ध घी से बनाया गया और दूसरा है शुद्ध दुध से बनाया गया है। दोनों का कच्चा माल अलग अलग है, लेकिन बनाने का तरीका एक जैसा है। दुध को उबाल कर लकड़ी की बाल्टी या अन्य पात्र में डाला जाए, जब तापमान 30-40 डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुंचा , तो उस में थोड़ी सी दही खमीर के रूप में मिलाया जाए, इस तरह खमीर उठने के बाद पूरी बाल्टी के दुध ने सफेद दही का रूप ले लिया।
दही प्यास बुझाती है और नींद दिलाने में मदद देती है। और आंत के भीतर विषाणु को मार डालती है । उसे पीने से मोटापा कम हो जाएगा , मुख को निखार दिया जाएगा और स्वास्थ्य को मजबूत किया जाएगा।
शुद्ध ताजा दुध से घी निकालने के बाद जो कचरा रह जाता है, उसे उबाल कर दुध-कचरा बन जाता है। दुध-कचरे से रोटी और अन्य पकवान बनाया जा सकता है। दुध उबालने में जो मलाई निकली है, वह बहुत पोषक और जायकेदार है। फल मिठाई कम होने वाले तिब्बत में लोग दुध-कचरा और मलाई को बच्चों को खिलाते हैं और लोग बाहर जाने के समय साथ भी ले जाते हैं।
दुध-कचरा खाने के अनेक तरीके हैं, उसे उचित मात्रा में चानपा, घी, चीनी को मिला कर हाथ से दबाने से पुख्ता चोकोण केक बनाया जाता है। उसे पानी , मांस की पतली टुकड़ी, आटा, सूखा मिर्च और नमक के साथ मिला कर चानपा के सहायक खाने के रूप में खाया जाता है। दुध-कचरा भुना जा सकता है और तला जा सकता है और तरकारी के रूप में ले लिया जा सकता है और मुख्य व फुटकर खाने के रूप में भी ले सकता है।
तिब्बत पठार पर है, समुद्री सतह से ऊंचा है और वायु कम है। इस प्रकार की भौगोलिक स्थिति से यह निश्चित हुआ है कि ठंड और ओक्सीजन के अभाव का मुकाबला करने में सहायक खाद्यान्न बहुत महत्वपूर्ण है। बीफ और बाटन तिब्बती लोगों के खाने में अहम कच्चा माल और भोजन बन गए।
तिब्बत में बीफ मुख्यतया याक का मांस है, याक का मांस लाल लाल ताजा है, कोमल और स्वादिष्ठ है, उस में कम चर्बी और अधिक प्रोटिन है। बाटन ज्यादातर मेमने का मांस है । तिब्बती लोग बकरे का मांस नहीं खाते हैं ,वे मानते हैं कि बकरे के मांस से गुर्दे को नुकसान पहुंचता है। कुत्ते का मांस एकदम वर्जित है और मछली भी तिब्बती लोग नहीं खाते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि मछली ड्रैगन या जल देवता का अवतार है।
तिब्बती जाति में पशु का वध सर्दियों के आरंभिक समय में ज्यादा होता है। इस मौसम में पशु मोटा और हृष्टपुष्ठ है और वध किये जाने के बाद सर्दियों के मौसम में अच्छी तरह सुरक्षित भी किया जा सकता है। तिब्बती लोग मांस को कच्चा भी खाते हैं, वे तेज चाकू से मांस को काटकाट कर टुकड़े टुकड़े कर देते हैं और चाकू के नोक से उठा कर मुह में डालते हैं। लम्बे समय से कच्चा मांस खाने के कारण तिब्बती लोग इस काम में बहुत कुशल है और बहुत ही मजा भी लेते हैं।
वर्तमान तिब्बत में कच्चा मांस खाने की प्रथा खत्म होने जा रही है और लोग सूखे हुए मांस खाना पसंद करने लगे। तिब्बती लोग सर्दियों के दिन नवम्बर के निम्न तापमान में याक और मेमने के मांस को छोटे छोटे टुकड़े के रूप में काट देते हैं और उस पर नमक लगाकर छाया में लटका देते हैं और हवा से उसे सूखा पड़ने देते है. इस प्रकार के सूखे मांस में पानी निकला है और ताजा स्वाद बना रहता है। अगले साल के फरवरी और मार्च में खाया जाता है। तिब्बत में मौसम सूखा होता है और सूखे मांस मुश्किल से खराब होता है और साल भर सुरक्षित हो सकता है।
सूखे मांस को खाने के तीन तरीके हैं यानी तपा कर खाना, कच्चा खाना और उबाल कर खाना। वर्तमान तिब्बत में जनजीवन का स्तर उन्नत होने के कारण बहुत सी खाद्यान्न कंपनियां विभिन्न स्लाद के सूखे मांस उत्पादित करती हैं ,जिस में काफी, मिर्च और शहद का जायका शामिल है ।