2009-04-13 12:58:07

तिब्बती खानपान की प्रथाएं

चानपा,घी,चाय और बीफ बाटन तिब्बती खानपान की चार निधि है। चानपा तिब्बती जाति की सब से अच्छी निधि है ,वह पके पकाए तिब्बती जौ के आटे से बनाया गया है जो छ्योछ्यो से मिलता जुलता है ।

तिब्बती जौ जौ की एक प्रजाति है। मुख्यतः तिब्बती पठार के ठंडे इलाके में उगता है । तिब्बती जौ आंच से पकाने का काम एक तकनीकी काम है । जौ में से बढ़िया वाला चुन कर एक विशाल कड़ाहे में भुना जाता है । जौ भुन कर पकाने से पहले जौ को उचित मात्रा में रेत के साथ मिला कर तेज आंच पर भुना जाता है। रेत तप जाने के बाद जौ पानी से भिगा किया जाता है। फिर उसे गर्म रेत के साथ भुने जाने से जौ फुट भी जाता है और कुरकुरा भी हो जाता है । जौ भुनने वाला एक लकड़ी के औजार से कडा़हे में जौ और रेत को चलाता रहा तब जौ और रेत आपस में टक्कर जाने से पॉम्पो की तरह फूल जाता है । हल्के फूल गए जौ खुद ऊपर बाहर फुट कर निकलता है और भारी रेत नीचे रह जाता है।

भुने गए जौ को पीस कर पाउडर बनाया गया ,जो तिब्बती जाति का सब से पसंदीदा खाना चानपा तैयार हो गया। नया बनाया गया चानपा खाने में स्वादिष्ठ और सुगंधित लगता है। तिब्बती जाति में चानपा खाने के अनेक तरीके हैं। लोकप्रिय परंपरागत खाने के तरीके में लोग कटोरे में थोड़ा घी का तेल ,चाय का पानी या दुधर चाय डालते हैं, फिर कुछ चानपा उस में डाल कर ऊंगली से मिलाते हैं, चानपा और घी को अच्छी तरह मिलाने के बाद उसे हाथ से गोल गोल टुकड़ी बना कर खा लेते हैं। चानपा, घी ,चाय और दुध से मिश्रित इस आहार में प्रचुर पोषक तत्व हैं, जो बड़ी ऊर्जा प्रदान करता है और सर्दी वाले तिब्बत क्षेत्र के लिए अनुकूल है । चानपा खाने में सरल है और ले जाने में भी आसान है जो घुमतू जीवन के अनुरूप है। तिब्बती चरवाहे दूर जगह जाते समय अवश्य एक थैली का चानपा साथ ले जाते है । जब भूख लगी , तो काष्ठ कटोरे में कुछ चानपा, घी और नमक मिला कर हाथ से उठा कर खाते हैं।

घी तिब्बती खाद्य पदार्थ का उत्तम अंश है। वह मक्खन जैसा दुधिर वस्तु है। तिब्बती लोग याक के दुध से बनी घी पसंद करते हैं, वह ताजा पीला और महकदार और जायकेदार है। बकरी के दुध की घी सफेद, चमकदार और पोषक है, लेकिन गाय के दुध से बना घी कम पोषक है। घी बहुत पोषक और पठार पर रहने वाले लोगों की शारीरिक आवश्यकता पूरा कर सकता है।

आधुनिक मशीन इजाद होने से पहले,तिब्बत में लोग हाथों से घी परिशुद्ध करते थे। हर साल के जुलाई, अगस्त और सितम्बर के माह में तिब्बत पठार पर घास अच्छा उगता है औक जलवायु सुहावना होता है जिस के दौरान गाय और बकरी अच्छा दुध देती है, इसलिए यह दुध से घी निकालने का अच्छा सीजन भी होता है। इस सीजन में तिब्बती महिला घर के आंगन में और तंबू के बाहर दुध से घी परिशुद्ध करती दिखाई देती है। हाथ से घी बनाने के काम में एक बाल्टी का इस्तेमाल किया जाता है और चालो नाम की एक मोटी काष्ठ तख्ते पर पांच त्रिकोनी छेद खोदे गए और बीच में तीन हाथ लम्बा एक लकड़ी का डंडा लगाया गया । इन साधनों से एक बाल्टी में आम तौर पर 30-40 किलोग्राम दुध डाल कर 1-2 किलोग्राम घी निकाली जाती है।

घी बनाने का काम तिब्बती महिला करती थी । तिब्बती महिला साफ छान कर हुए ताजा दुध को बाल्टी में डालती थी और उस में थोड़ा सा खमीर उठने देती थी, घी बनाने के समय महिला दोनों हाथों से लकड़ी के डंडे को पकड़ कर पूरी शक्ति से चालो नामक छेद वाली तख्ते को नीचे दबा देती थी और बाल्टी के तल तक पहुंचने के बाद मुक्त छोड़ देती थी और डंडा फिर ऊर्ध्वगति बल से ऊपर उठता था । महिला फिर इस प्रकार का काम करती थी , लगातार सैकड़ों दफा करने के बाद घी निकल कर बाहर आती थी , तब घी बाहर निकाल कर उसे साफ करके घी की टुकड़ी बनाती थी । घी बन तैयार होने के बाद पुरूष उसे बैल के चमड़े की थैली में भर देते थे और आगे प्रयोग के लिए सुरक्षित करते थे। घी बनाने का काम सरल है , लेकिन हुनर और शक्ति लगाने की जरूरत है। घी बनाते समय महिला अकसर गाना भी गाती थी ।

घी खाने के अनेक तरीके हैं, मुख्यतः घी का चाय बनाया जाता है। इस के अलावा चानपा में मिला कर खाया जाता है। त्यौहार और खुशी के दिन लोग दुध के पकवान बनाते है , जिस में घी का प्रयोग होता है। अब तिब्बत में ताजा फल खूब मिलता है। लेकिन अतीत में वहां फल नहीं मिलता था ,इसलिए सब्जी और फल की जगह तिब्बती लोग मांस और घी का लाभ लेते थे।

चाय का तिब्बती जाति के जीवन में बड़ा महत्व होता है। अतीत में तिब्बती जाति के खाद्यन्न में दुध और मांस की बहुतलता थी और साज फल की कमी थी। इसलिए स्थानीय लोग खाने के समय पीने के लिए चाय लेते थे । तिब्बत में यह कहावत चलता है कि तीन दिन अनाज का अभाव सह सकता है, पर एक दिन चाय की कमी नहीं सह सकता ।