2009-04-07 13:13:43

चायपान की प्रथा

 चीन चाय का जन्म देश है. चीन में चाय संस्कृति का इतिहास लम्बा पुराना और विविध विषयक है। तिब्बती जाति के जीवन में चाय का अहम स्थान है। तिब्बत में यह कहावत चलता है कि हान जाति का पेट चावल से भरा रहता है और तिब्बती जाति का पेट चाय से । इस से जाहिर है कि चाय तिब्बत में कितना महत्वपूर्ण है।

  तिब्बती जाति समुद्री सतह से 3500 मीटर से ज्यादा ऊंचे स्थान पर रहती है। पहले वहां चाय का उत्पादन नहीं था। आज से 1300 साल पहले थुबो राजवंश के काल में चाय थांग राजवंश से तिब्बत में आया।

 तिब्बत के ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार चाय के थुबो में आने के शुरू शुरू में वह टॉनिक के रूप में लिया जाता था। केवल थुबो राज घराने को चाय पीने का अधिकार था । उस समय थुबो राजघराने में मध्य चीन से आये चाय भंडारित था , पर वे ठीक चाय पीने के तरीके से अज्ञात थे। चायपान की प्रथा चलने का तिब्बती बौद्ध धर्म के विकास से संबंध था । थांग राजवंश की राजकुमारी वनछङ के तिब्बत में राजा के साथ विवाह करने के बाद बौद्ध धर्म तिब्बत में आया और धीरे धीरे फैल गया । मध्य चीन के भिक्षु ध्यानासन लगाने के दौरान चाय पीते थे और चाय पीने से भिक्षु का ध्यान बरकरार रह सकता था और मनोबल बढ़ जाता था। तिब्बती बौद्ध धर्म के भिक्षु ने भी चाय की यह क्षमता मानी और चायपान की प्रथा तिब्बती बौद्ध धर्म के मठों में चल गयी। उपरांत, तिब्बत में दो बार बड़े पैमाने पर बौद्ध धर्म का विरोध और विनाश करने का आंदोलन हुआ और बहुत से मठ मंदिर तबाह कर दिए गए और भिक्षुओं को विवश होकर सांसरिक समाज में भाग कर मिलना पड़ा , इस से चाय पान की प्रथा भी आम लोगों में फैल गयी।

 मध्य चीन और तिब्बत के बीच आवाजाही और आदान प्रदान लगातार बढ़ने के परिणामस्वरूप चायपान तिब्बत में और अधिक लोकप्रिय हो गया और अधिक मात्रा में चाय भी तिब्बत में आने लगा। थांग राजवंश के काल में चाय घोड़ा व्यापार मेला भी कायम हुआ, जिस के जरिए चाय बड़ी मात्रा में तिब्बत में पहुंचाया गया। खास कर 13 वीं शताब्दी में तिब्बत औपचारिक रूप से चीन का एक प्रशासनिक क्षेत्र बनने के बाद तिब्बती लोगों में चायपान के लिए विश्वसनीय भौतिक गारंटी भी मिल गयी।

  चीन के भीतरी इलाके की चाय संस्कृति को तिब्बत में राजघरानों, मठ मंदिरों और आम लोगों में फैलने और हजार साल तक विकसित होने के बाद अंत में विशेष तिब्बती शैली के चायपान की प्रथा संपन्न हो गयी। मांस और चानपा को खाद्यान्न का मुख्य आहार बनाने वाली तिब्बती जाति के लिए चायपान स्वास्थ्य लाभ देता है। चायपान से चर्बी घटायी जाती है और पाचनशक्ति बढ़ायी जाती है। चायपान से लोग एक सुखद मानसिक हालत में पहुंच जाते हैं । इसलिए तिब्बत में चाय को स्वर्ग से मिला अमृत माना जाता है।

तिब्बती जाति में चाय का पान करने के विरल तरीके है । मसलन्, चीन के अन्य क्षेत्रों में उबले पानी में चाय डालने के बाद पीया जाता है, जबकि तिब्बती बहुल क्षेत्रों में आग से चाय पानी में उबाला जाता है, जब चाय का रंग सांवला बन गया, तभी पीता है, चाय में थोड़ा सा नमक भी मिलाया जाता है । तिब्बत में यह कहावत है कि चाय में नमक नहीं है, तो पानी की तरह नीरस है। चाय में गाय या बकरी का दुध भी मिलाया जा सकता है , जो दुधिया चाय के रूप में चरवाहों और किसानों में ज्यादा लोकप्रिय है।

  तिब्बती जाति में चाय पान के बाद जो पत्ते रह गए है, उसे बच्चों को खिलाया जाने की प्रथा भी है। कहा जाता है कि चायपान के बाद रह गए पत्ते पोषकता देता है । वर्तमान के तिब्बत के उत्तर पूर्व भाग और छिंगहाई व सछ्वान प्रांतों के तिब्बती बहुल क्षेत्रों में चाय के पत्तों को शोरबा के साथ खाने की प्रथा भी है, जिसे चानपा चाय कहलाता है। चानपा चाय बनाने में चाय के पत्तों को बारीक कर्ण में पीस कर बनाया जाता है और कर्णों को पानी में उबाला जाता है और उस में कुछ चानपा और नमक मिलाया जाता है। चानपा चाय ऊर्जा प्रदान करता है।

 तिब्बती जाति में घी-चाय सब से श्रेष्ठ माना जाता है। कहते हैं कि यदि घी-चाय नहीं पीया, तो तिब्बत की यात्रा नहीं माना जाता। घी का चाय बनाने में पहले शुद्ध चाय का पानी बाल्टी में डाला जाता है, फिर घी, नमक, अंडा और अखरोट के गुठली मिलाया जाता है। पूरा मिश्रित होने के बाद पीता है। घी-चाय सुगंधित, मुलायम और प्यास को बुझाता है । तिब्बती लोगों में वह बहुत ही पसंद है।

 उल्लेखनीय बात यह है कि उपरोक्त चाय बनाने और पीने के तरीके और प्रथाएं 1000 साल पहले मध्य चीन के विभिन्न स्थानों में प्रचलित रहे थे । लेकिन युन राजवंश के बाद ये प्रथाएं केवल चीन के कुछ अल्पसंख्यक जाति बहुल क्षेत्रों में बरकरार रही हैं । किन्तु सांस्कृतिक समायोजन और मिश्रण के बाद तिब्बती जाति में प्रचलित चाय पान के ये तरीके भी प्राचीन चीनी चायपान परंपरा से विकसित हो कर अपनी विशेष पहचान वाली हो गयी है। चायपान तिब्बत में एक व्याप्क पानजल होता है।

तिब्बत के गांवों और चरगाहों में अवकाश समय लोग आग कुंभ के पास बैठे चाय पीते हुए गपशप मारते अकसर दिखाई देते हैं। चरगाहों में जब मवेशी घास चर रहा है, तो चरवाहे साथ लाए छोटे कड़ाहे को निकाल कर तीन पत्थरों पर रख देता और आग जला कर आराम से चाय बनाता है और बाहर जाने वाले लोग भी आराम के समय कड़ाही लगा कर चाय बनाते हैं।

चाय भिक्षुओं के जीवन का एक अभिन्न भाग बन गया है। चायपान ताजदगी और ध्यानाकर्षण बल प्रदान करता है। मठों में रोजाना तीन बार सामुहिक चायपान होता है, यानी सुबह, दोपहर और शाम सूत्र पाठ के बाद किया जाता है। आम तौर पर भिक्षुओं को घी का चाय मुहैया किया जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुसार भिक्षु निर्धारित पाठ पूरा करने के बाद एक अवधि में स्वःतपस्या करते हैं, इस अवधि में चाय का कड़ाही, थैली का चानपा, चाय के पत्ते और घी उन के जीवन संसाधन ही है।