2009-03-23 09:36:18

तीर्थ पर्वत व झील की पूजा करने के लिए तिब्बती लोगों की प्रथा

तीर्थ पर्वत और तीर्थ झील की पूजा ऐतिहासिक विकास के साथ साथ तिब्बती आम लोगों के जीवन का एक भाग बन गया है। विभिन्न स्थानों में तीर्थ पर्वत और झील पूजा की तरह तरह की गतिविधियां आयोजित होती हैं। गतिविधियों में देवालय लाजे की स्थापना, रंगीन तीर लगाना, घोड़ा मुक्त छोड़ना, सूत्र पताका और सूत्र-चक्र आदि शामिल हैं।

लाजे का तिब्बती भाषा में अर्थ है वह पत्थरों का ढेर , जिस पर झंडियां फहराती हैं। तिब्बत में बहुत से पहाड़ी दर्रों और चोटियों पर तिब्बती विशेषता वाली सूत्र पताके हवा में फहराते हुए दिखाई देते हैं। वहां कुछ स्थलों पर पत्थरों के ढेर लगाये गए, जो देवता का आवास माना जाता है और लोग उस की पूजा करते हैं। लाजे की पूजा का इतिहास बहुत पुराना है, संभवतः आदिम धर्म में प्रकृति की पूजा से निकली थी और वह पर्वत पूजा का एक रूप है। बौद्ध धर्म ने तिब्बत में आने के बाद लाजे की स्थापना कर पर्वत देवता की पूजा करने की प्रथा अपनायी । इस पूजा में रंगीन तीर लगाने, घोड़ा छोड़ने तथा सूत्र पताका लगाने का घनिष्ट संबंध है । यह पूजा प्रथा आज तक तिब्बत में बरकरार रही है।

रंगीन तीर लगाने की प्रथा तिब्बत में लोकप्रिय है। वहां हर घर के मकानों की छत पर पवित्र तीर लगाये जाते हैं। इस से पहाड़ देवता की पूजी की जाती है। पवित्र तीर तीन मीटर लम्बा है जिस पर हाथी, शेर और बाघ के चित्र अंकित हैं । तीर पहाड़ देवता को एक भेंट है , देवता पर्वत रक्षा के लिए इस्तेमाल करता है। घोड़ा मुक्त छोड़ने में असली घोड़े का प्रयोग नहीं होता है, वास्तव में लाल, पीले, नीले, सफेद और हरे पांच रंगों के कागज पर सात सेंटीमीटर लम्बी चार कोणी तस्वीर अंकित है, बीचोंबीच मन्नी वाहन घोड़े का चित्र है,चित्र के ऊपर भाग में चांद सूरज और चारों कोणों में चार नस्ल के पशु अंकित है और कुछों में मंत्र के छै अक्षर अंकित है। गिरि देवता पूजा के दौरान हवा में ऐसा घोड़ा छोड़ना एक अनिवार्य प्रथा है । यानी इस तरह देवता को वाहन सवारी भेंट की जाती है।

उल्लेखनीय है , बहुत से मौके पर लाजे देवालय की स्थापना, रंगीन तीर लगाना और कागजी घोड़ा छोड़ना एक साथ होता है।

तिब्बती जाति में तीर्थ गिरि पूजा और झील पूजा की अन्य अनेक प्रथाएं हैं। उदाहरणार्थ सूत्र पताके फहराने की प्रथा यानी रंगीन पताकों को जिन पर प्रार्थना और मंत्र के शब्द अंकित है, पहाड़ की चोटी या ऊंची चट्टान पर खड़े किए गए लाजे प्रस्तर टीले, तंभे और मठ व पगोडे के चारों ओर और गांव में मकानों की छत या तंबू के चारों ओर ऊंचे लगाया जाता है।

पहाड़ों और झीलों की परिक्रमा करना और मठ के स्तूप की परिक्रमा करना भी अहम पूजा रस्म है। तिब्बती जाति के धर्मालंबी लोगों का मानना है कि तीर्थ पर्वत और झील से उन का पालन पोषण हुआ है और गिरि देवता और जल-देवता उन की रक्षा करते हैं। इसलि वे पवित्र पर्वत और झील से स्नेह और आभार का भाव रखते हैं। वे मानते हैं कि तीर्थ पर्वतों और झीलों की परिक्रमा करने से बुद्ध और देवता की पूजा कारनामा मिलता है । तिब्बती लोग खतरे और थकान की परवाह न करते हुए वे परिक्रमा करते अथकते हैं। परिक्रमा के लिए दो तरीके हैं, एक है पैदल से परिक्रमा करना और दूसरा है षष्टांग नतमस्तक कर परिक्रमा करना । षष्टांग लेट कर नतमस्तक करने में भक्त अपना समूचा शरीर को जमीन पर लेटा कर नमस्ते करते हैं । नतमस्तक करने के समय दोनों हाथ जोड़कर ऊपर उठा कर माथे, मुह और हृदय पर एक बार छू लेते हैं , फिर समूचा शरीर को जमीन पर लेटाते है, दोनों हाथ आगे बढा कर भूमि को छूते हैं । फिर उठ कर दुबारी इस प्रकार की हरकत करते हैं और कदम ब कदम पर इस प्रकार की हरकत करते हुए गंतव्य स्थल तक पवित्र भूमि को माप लेते हैं। इस कठिन पूजा रस्म से वे मानते हैं कि उन का हदय देवता या बुद्ध से जुड़ जाता है । वे षष्टांग नतमस्तक से भगवान, गिरि देवता , जल देवता और बुद्ध की सब से भक्ति से पूजा प्रार्थना कर सकते हैं । इस कठिन व लम्बी यात्रा से तिब्बती लोगों का दृढ़ संकल्प , अद्मय मनोबल और पक्की भक्ति व्यक्त होती है।

तिब्बती जाति में पूजा प्रार्थना करने में सुगंधित झाड़ घास जलाने की प्रथा भी है। चीड़ देवदार पेड़ के पत्तियों और सुगंधित घास झाड़ को जलाने से महक धुआं निकलती है, उस से न केवल आम लोगों को महक और सुकुन महसूस होता है, साथ ही गिरि देवता के भवन को भी सुगंधित किया जा सकता है। इसलिए गिरि देवता खुश हो जाता है। इसलिए तिब्बती लोग इस प्रकार से सुगंध और महक को देवतागण को भेंट करते हैं और गिरि देवता,जल देवता से आनंदित होने पर संसार को सुख प्रदान करने की मनौती करते हैं।

तीर्थ पर्वत और झील की पूजा रस्मों में सूत्र जपना, पवित्र जल भेंट करना , घी की बत्ति जलाना , जानवर को मुक्त छोड़ना और त्सामपा नामक तिब्बती जौ का पकवान भेंट करना आदि भी है। लम्बे अरसे के विकास के चलते कुछ रस्म तरीके भव्य धार्मिक पर्व और लोक परंपरागत प्रथा बन गए। जैसाकि तीर लगाना, सुगंधित वनस्पति जलाना , पहाड़ की परिक्रमा करना और जल पूजी का स्नान पर्व और पूजा प्रार्थना और मठ मंदिर को संपत्ति की भेंट करना तिब्बती लोगों के जीवन का एक बड़ा भाग हो गया ।

पूजा प्रार्थना के दौरान कुछ निषिध भी उत्पन्न हुई है। जैसाकि पवित्र झील में तैरने पर पाबंदी, उस में कचरे और मलमूत्र त्याग देने की मनाही, झील नदी को खोदने व उस में मछली मारने की मनाही , पवित्र पहाड़ों में शोर मचाने पर पाबंदी, वहां शिकार करना और पेड़ काटना वर्जित होना आदि। यदि किसी ने इन निषेधों का उल्लंघन किया, यानी छोटी पक्षी तक मारा , छोड़ा पेड़ काटा या छोटा फूल तोड़ा, तो उस के सिर पर आफत गिर सकती है।

न केवल तीर्थ पर्वत व झील की पूजा में ,दरअसल तिब्बती लोगों के विश्वास में यह मान्यता आम है कि दुनिया की सभी चीजों में आत्मा होती है और नद झील और जीवजंतु को भगवान का संरक्षण मिलता है। मानव सिर्फ इस धरती का राहचरी है, जबकि याक, घोड़ा, बकरा और पेड़ पौधे इस भूमि के सच्चे मालिक हैं। इसलिए बर्फीले पठार पर बसे तिब्बती जाति के लोगों के दिल में कुदरत के पेड़ पौधे, पशुपक्षी, गिरि पत्थर और नदी झील के प्रति परिपूर्ण सम्मान और भक्ति का भाव है । वे लगन से उन का संरक्षण करते है। प्रकृति से प्यार और नभ-धरा से डर-सम्मान के कारण कमजोर पारिस्थितिकी वाले छिंगहाई तिब्बत पठार पर आज तक आदिम, रहस्यमय और सुन्दर सूरत बनाए रखी हुई संभव है । इस विशाव धरती पर तमाम जीव शुद्ध, शांत और स्वच्छंद रह सकते हैं । जैसाकि एक गीत के बोल हैः "एक सुन्दर जगह है, उसे लोग हमेशा चाहते हैं, जहां बारहमास बहार रहता है , जहां पक्षियों की कलरव और पुष्प महक रहा है ,जहां कोई दुख नहीं ,अवसाद नहीं---।"

आज बिगड़े हुए पर्यावरण की हालत में हम तिब्बती जाति के जीवन से कुछ सीख सकते हैं कि किसी तरह प्रकृति का समादर करेगा और उस के साथ मेल घुल कर रह सकेगा।