2009-03-19 18:32:35

तिब्बती लोगों के तीर्थ पर्वत व झील की पूजा

तिब्बती जातीय संस्कृति में जिस पहाड़ में देवता का वास माना जाता है, उसे तीर्थ पर्वत कहलाता है। पहाड़ी देवता तीर्थ पर्वत रूपांतरित देवात्मा है । शुरू शुरू में पहाड़ी देवता पहाड़ और पहाड़ी वन में उत्पन्न मेघ और कोहरे में प्रकट होता था । बाद में सुरागाय आदि जानवर पहाड़ में आये, तो आदिम पूजा में जानवरों का तत्व भी शामिल हुआ । इसलिए प्राचीन तिब्बती कथाओं में बहुत से ऊंचे ऊंचे पर्वत सफेद सुरागाय के बदले हुए रूप बन गए।

तिब्बती जाति का समाज विकसित होने के साथ साथ मानव का स्थान प्रकृति में अहम होता गया। आदिम धर्म भी मानव को प्राथमिकता देने लगा। इसतरह तिब्बती जाति के पूर्वजों में पहाड़ी देवता के रूप भी जानवरों से बदल कर मानव का सिर व जानवर का शरीर या मानव व जावनर का मिश्रित अथावा समूचे मानव की आकृति में आये । पहले के देवता सुरागाय, घोड़ा ,बकरा और शेर आदि भी मानव देवता के वाहक पशु बन गए । उत्तरी तिब्बत के न्यानछिंग थांगकुला पर्वत के देवता का वाहक पशु एक सफेद याक था।

बौद्ध धर्म तिब्बत में आने के शुरूआती काल में अपने अस्तित्व व विकास के लिए स्थानीय पहाड़ी देवता को अपना धर्म रक्षक देवता बनाने लगा। उस ने तिब्बती जाति के आदि धर्म –बोन धर्म के बहुत से यज्ञ कर्म और पूजा तरीके अपनाये और उसे बौद्ध धर्म के सिद्धांत में सम्मिलित किया । इस के बाद पहा़ड़ देवता के दो कार्यभार हुए, यानी वह बोन धर्म और लोक विश्वास के पवित्र पर्वत देवता भी है और तिब्बती बौद्ध धर्म के धर्मपालक देवता भी।

बर्फीले पठार पर खड़े पहा़ड़ छोटे बड़े और ऊंचे नीचे होते हैं, उन पर शासन करने वाले देवता भी नाना प्रकार के हैं और बड़े छोटे और ऊंचे नीचे दर्जों के भी विभाजित हुए हैं। वे अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में रहते हैं और ओला, महामारी , विपत्ति के प्रकोप तथा फसलों और मानव पशु के जीवन पर नियंत्रण की क्षमता रखते हैं। पठार पर हरेक क्षेत्र के अपने अपने पहाड़ी देवता हैं और हरेक कबीले और गांव तथा यहां तक हरेक परिवार में अपना अपना पूज्य देवता या देवतागण होता है। अंततः तिब्बत में तीर्थ पर्वत और पहाड़ी देवता बेशुमार हो गए।

सामाजिक विकास और सांस्कृतिक निरंतरता के दौरान कुछ पहाड़ी देवता भी विभिन्न धर्मों और भिन्न भिन्न संस्कृति वाले जन समूह का साझा देवता बन गए । तिब्बत में तीर्थ पर्वत का राजा मानने वाला कांगरिनबोक यानी कैलाश पर्वत कांगदेस पहाड़ की मुख्य चोटी है , वह एशिया के अनेक धर्मों का समान उत्पत्ति स्थल है, वह न केवल तिब्बत के आदिम धर्म, बोन धर्म और तिब्बती बौद्ध धर्म का समान पूज्य तीर्थ पहाड़ है , साथ ही मंगोल, आर्य, मलय, भारत और नेपाल की अनेक जातियों के समान तीर्थ स्थल है।

पर्वत की भांति तीर्थ झील और जल देवता की पूजा भी तिब्बती जाति के प्राचीन पूर्वज की व्यापक परंपरा थी। तिब्बती जाति के आदिम धर्म में जल देवता के रूप में ड्रैगन की भी पूजा होती थी।

आरंभिक काल में ड्रैगन की आकृति तिब्बती जाति के कृषि क्षेत्रों में प्रांगन की बाह्य दीवारों और रसोई मकानों की भित्ति पर अंकित थी , जो नद-झील में रहने वाले केकड़ के रूप में थी । उपरांत , ड्रैगन की पांच किस्में हुईं, जो संसार के पूर्वी , दक्षिण, पश्चिमी ,उत्तरी और मध्य स्थलों पर वास करते थे। पांचों किस्मों के ड्रैगन देवताओं में मानव को खुशहाली और शांति ला सकने वाले अच्छे देवता भी थे , मानव, पालतू पशु और फसल को विपत्ति पहुंचाने वाले बुरे देवता भी । देवतागण में हवा चलाने , वर्षा बरसाने , बर्फ गिराने , वज्रपात करने तथा युद्ध करने वाले कार्य विभाजन था । फिर उपरांत, ड्रैगन का रूपांतर धार्मिक देवता में हुआ और उसे धार्मिक महत्व और आकृति प्रदान की गयी। धार्मिक सिद्धांत के मुताबिक ड्रैगन को मानव का स्वरूप दिया गया और ड्रैगन की आकृति भी मानव का सिर और पशु का शरीर वाला बनाया गया , उस के सिर पर नाग और शरीर में मछली या सांप का पूच्छ उगे थे। तिब्बती आदिम धर्म – बोन धर्म का ड्रैगन देवता उत्तरवर्ती काल के ड्रैगन देवता सिलसिले में था ,जिस में भारत के नागराज की कुछ विशेषता मिश्रित थी। बोन धर्म के अनुसार छिंगहाई तिब्बत पठार पर ड्रैगन देवता माफाम्याम सो, याम्जोंगयाम सो, नामत्सो और छिंगहाई झील चार झीलों के देवतागण है , जो चार समुद्री ड्रैगन राजा कहलाते थे। यह हान जाति के चार समुद्री ड्रैगन राजा से मिलता जाता है। चार समुद्री ड्रैगन राजा मानव व पशु की मिश्रित आकृति में है। किन्तु तिब्बती ड्रैगन देवता बहुधा नारी के रूप में है, जो रूपवान, मेहनती और सुशील है, जिस में मानव और मातृत्व निहित है और तिब्बत के रसोई देवता, परिवार के देवता तथा तंबू के देवता के रूप में भी पूजा किया जाता है।

माफाम्याम सो झील कांगरिनबोक (कैलाश) की भांति पवित्र झीलों का राजा मानता है। यह झील कांगरिनबोक पहाड़ के निकट है, जो समुद्री सतह से 4500 मीटर ऊंची है और जल-क्षेत्र 400 वर्गकिलोमीटर है , माफाम्याम सो तिब्बत की चार तीर्थ मुख्य झीलों में से अव्वल है, वह तिब्बती बोन धर्म का कार्यवाही केन्द्र और तीर्थ झील है । कालांतर में वह तिब्बती बौद्ध धर्म की तीर्थ झील भी रही । तिब्बती भाषा के ऐतिहासिक उल्लेख के अनुसार वह हान जाति की पौराणिक कथा में वर्णित पश्चिमी स्वर्ग की राजमाता का निवास स्थान भी था। इस के अलावा माफाम्याम सो भारत के हिन्दुओं की तीर्थ झील है। बहुत से भारतीय व नेपाली भक्त हर साल माफाम्याम सो की परिक्रमा करने आते हैं।