2009-03-02 16:36:53

तिब्बती बौद्ध धर्म का जन्म

करीब 7वीं शताब्दी के समय बौद्ध धर्म चीन के भीतरी इलाके और भारत से तिब्बत पहुंचा और विकास, विनाश और पुनरूत्थान के दौरों से गुजर कर बौद्ध धर्म ने तिब्बत में जड़ जमा ली और विकसित होकर अपनी विशेषता वाली शाखा बनी, जिसकी अनोखी विशेषता और समृद्ध निहितार्थ तिब्बती बौद्ध धर्म का जन्म हुआ।

तिब्बती बौद्ध धर्म चीन के तिब्बती बहुल क्षेत्रों और भीतरी मंगोलिया स्वायत्त प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है। इस की उत्पत्ति और विकास की प्रक्रिया में उस के अनेक संप्रदाय संपन्न हुए। आज तक तिब्बती बौद्ध धर्म के न्यिंगमा,गेग्यु, साग्या और गेलुग संप्रदाय प्रमुख हैं।

सातवीं शताब्दी में थुबो के राजा सोंगत्सान गाम्बो के काल में तिब्बत का एकीकरण हुआ। सोंगत्सान ग्याबो ने नेपाल की कुमारी भृकुटी और थांग राजवंश की कुमारी वनछङ को अपनी रानी बनायी। तिब्बत आने के समय दोनों कुमारियों के साथ बड़ी संख्या में बौद्ध सूत्र और बुद्ध मुर्ति लायी गयीं । इस तरह बौद्ध धर्म तिब्बत में आया और विकसित भी हुआ ।

लेकिन तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रसार के दौरान दो बार उस पर पाबंदी और उस के विनाश की घटनाएं भी हुई थीं। 11 और 12 वीं शताब्दी तक जाकर बौद्ध धर्म ने फिर से तिब्बत में सिर उठाया और आहिस्ता आहिस्ता आम लोगों में उस का प्रभाव बढ़ता गया। बौद्ध भिक्षुओं के समान प्रयासों के नदीजातः बौद्ध धर्म की शक्ति बहाल हो गयी और मजबूत विकसित हुई। तिब्बत में स्थानीय सामंती राज्यों के विभाजन के साथ साथ विभन्न इलाकों में बौद्ध धर्म के अनेक संप्रदाय प्रकाश में आए। वे स्थानीय शासक गुटों के साथ सांठगांठ कर एक दूसरे पर आश्रित रहते हैं और एक दूसरे का समर्थन करते हैं और अखिरकार बौद्ध धर्म ने तिब्बत में शक्तिशाली हो कर शासन का स्थान प्राप्त किया। साथ ही तिब्बत की बौद्ध धर्म भी स्थानीय विशेषता वाला धर्म बन गया ,जो बाद में तिब्बती बौद्ध धर्म के नाम से मशहूर है।

सामाजिक और ऐतिहासिक कारणों से तिब्बती बौद्ध धर्म व्यापक तिब्बतियों में पूज्यी हो गया, खास कर चीन के तिब्बत क्षेत्र में वह राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विभिन्न क्षेत्रों में समाविशिष्ट हुआ और जन जीवन का एक अंग बन गया ।

                                                                     धार्मिक सुधारक त्सोंगखापा

14 वीं शताब्दी के मध्य में तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदायों में सत्ता के लिए छीनाझपटा हुआ करता था। जिस से धार्मिक शीलों को बरबाद किया गया। ऊपरी तबके के धार्मिक व्यक्तियों को बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त हुए, उन के पास अनगिनत संपत्ति इकट्ठी हुई और भोग विलास के जीवन में लिप्ट हुए। यह हालत बौद्ध धर्म के नियमों का बुरा उल्लंघन हुआ थी ।

तत्काल, तिब्बती बौद्ध धर्म के आचार्य त्सोंगखापा ने जगह जगह जाकर सूत्रों की व्याखा किया और शिष्यों को बना कर धार्मिक सुधार का सुझाव पेश किया। सोंगखापा का जन्म वर्ष 1357 में छिंगहाई प्रांत की चुंगह्वांग कांऊटी में हुआ था। बालास्था में वह भिक्षु बना , 16 साल की उम्र में वह तिब्बत जाकर शिक्षा ले ली और विभिन्न धर्माचार्यों से सीखा और 20 सालों तक गहन अध्ययन किया। उस ने विभिन्न संप्रदायों की खुबियों का विवेचन किया और अनेक रचनाएं लिखी और ऊंचा नाम कमाया ।

धार्मिक पुनरूत्थान के लिए सोंगखापा ने तिब्बत के विभिन्न स्थानों में बौद्ध सूत्रों की व्याख्या करते हुए भिक्षुओं से कड़ाई से शील नियमों का पालन करने तथा अधिकार व धन दौलत के पीछे ना दौड़ने की मांग की और उस ने सांसारिक मामलों में दखल नहीं करने का भी प्रस्ताव पेश किया तथा भिक्षुओं को सूत्रों पर अध्ययन के लिए क्रामिक प्रगति पाने के सुझाव पेश किया ।

 सन् 1409 सोंगखापा ने ल्हासा में एक बड़ा धार्मिक अनुष्ठान बुलाया , उस के उपरांत, अब तक हर साल ल्हासा में ऐसा अनुष्ठान आयोजित होता आया है। उसी साल, सोंगखापा ने ल्हासा में गानडेन मठ का निर्माण किया और गलुगे संप्रदाय कायम किया, गानडेन मठ संप्रदाय का मुख्य मठ बन गया , इस के बाद क्रमशः ड्रेपुंग मठ, सेरा मठ, ताशिलुंबो मठ और कुम्बुम मठ स्थापित किए। ये पांच मठ गलुगे त्सोंगखापा के धार्मिक सुधार के विचारों का प्रचार करने वाले स्थल हो गए।

तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदायों में गलुगे संप्रदाय की स्थापना देर से हुई थी , लेकिन त्सोंगखापा के धार्मिक सुधार के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा और आह्वान शक्ति बहाल हुई। उसे व्यापक भिक्षुओं से समर्थन मिला। उस के विचार शासक वर्ग की जरूरतों के अनुरूप थे , इसलिए शासक वर्ग का समर्थन भी मिला। इस तरह गलुगे संप्रदाय बढकर तिब्बती बौद्ध धर्म का सब से बड़ा संप्रदाय बन गया । तिब्बत के इतिहास में त्सोंगखापा व गलुगे की बड़ी प्रशंसा की गयी।

वर्ष 1419 में धर्माचार्य त्सोंगखापा का निधन हुआ, उस के कार्य को उस के शिष्यों ने आगे बढ़ाया । तिब्बत के अनेकों मठों में त्सोंगखापा की प्रतिमा बिठायी गयी है। उस के निधन दिवस को भी धार्मिक त्यौहार—दीपक पर्व का रूप दिया गया। तिब्बती पंचाग के अनुसार हर साल दसवें माह की 25 तारीख की रात लोग दीप जला कर खिड़की के पैड पर रख कर त्सोंगखापा की समृति करते हैं ।