इतिहास में तिब्बती चरवाहे घुमंतु जीवन बिताते थे । वे इधर-उधर घूमते थे और तंबू उन के रहने के मकान थे । वर्तमान में अधिकांश तिब्बती चरवाहे स्थाई रिहायशी मकानों में रहते हैं और स्थाई जीवन बिताने लगे हैं । लेकिन तंबू उन के जीवन में अपरिहार्य वस्तु है ।
घास मैदान में घास प्रचुरता से होने के कारण तिब्बती चरवाहे आम तौर पर इधर-उधर घूमते हैं । क्योंकि एक ही स्थल पर घास सीमित होती है और घास दुबारा उगने में भी समय लगता है । इस तरह घास न होने वाली शरत् ऋतु और सर्दियों में चरवाहे स्थाई मकानों में रहते हैं ।
तिब्बती चरवाहे आम तौर पर पालतु गायों व भेड़ों की ऊंन से तंबू बनाते हैं । नीलगाय की ऊन से बने हुए तंबू का रंग काला होता है, इस प्रकार के तंबू को काला तंबू कहा जाता है । जबकि भेड़ों की ऊन से बने हुए तंबू का रंग सफ़ेद होता है और इसे सफ़ेद तंबू कहा जाता है । लेकिन आम तौर पर तिब्बती चरवाहों के तंबू शुद्ध सफेद और शुद्ध काले रंग के नहीं होते हैं । विशेष कर शुद्ध काले रंग वाले तंबू बहुत कम दिखाई पड़ते हैं । क्योंकि तिब्बती लोगों को काला रंग पसंद नहीं है । इस तरह तंबू बनाने के वक्त शुद्ध काले रंग वाली सामग्री का प्रयोग नहीं किया जाता है । आम तौर पर तिब्बती चरवाहों के तंबू काले और सफेद मिश्रित रंग के होते हैं । गाय व भेड़ ज्यादा होने वाले पठार में कपड़े से बने हुए तंबू बहुत कम होते हैं, इस तरह इसे बहुत मूल्यवान भी समझा जाता है ।
तिब्बती चरवाहे तंबुओं का आम तौर पर अपने लिए ही प्रयोग करते हैं । परिवार के सदस्यों की संख्या के अनुरूप वे तंबू बनाते हैं । परम्परागत रीति के अनुसार तिब्बती चरवाहों के तंबू का द्वार पूर्व की ओर खुला होता है । तंबू को जोड़ने वाली रस्सियों पर रंगबिरंगे सूत्र झंडे बंधे रहते हैं, जो खुशहाली व शुभकामना के प्रतीक हैं ।