2009-02-10 12:31:38

पुराने जमाने में तिब्बत की सामंती भू-दास व्यवस्था

पुराने जमाने में तिब्बत में सभी जमीन सरकारी अधिकारियों, कुलीन वर्ग और मठों के उच्च स्तरीय भिक्षुओं के हाथ में थी । उन की जनसंख्या पुराने तिब्बत की कुल जन संख्या के पांच प्रतिशत से भी कम थी, लेकिन उन्होंने तिब्बत की सारी खेतीयोग्य भूमि, घासमैदान, वन, पहाड़ और अधिकांश पशु पर काबिज करते थे । भूदासों की संख्या पुराने तिब्बत की कुल जन संख्या के 90 प्रतिशत से ज्यादा थी । लेकिन उन के पास भूमि ही नहीं, शारीरिक स्वतंत्रता भी नहीं थी । भूदास जागीदार मालिकों के जागीर में जिन्दगी भर दास का जीवन बिताते थे । इस के अलावा, अन्य पांच प्रतिशत गुलाम जागीदारों के पारिवारिक दास भी थे । उन के पास कोई उत्पादन सामग्री नहीं थे, न कि शारीरिक स्वतंत्रता । पुराने तिब्बत में जागीदार भूदासों को अपनी निजी संपत्ति मानते थे । भूदासों का जागीदार द्वारा मनमाने ढंग से खरीद-फरोख्त किया जाता था, उपहार के रूप में दूसरे को भेंट किया जाता था और कर्ज के लिए गिरवती बनाया जाता था ।

पुराने तिब्बत में राजनीतिक व धार्मिक मिश्रित शासन वाले वर्ग ने पूर्ण रूप से शिक्षा देने व शिक्षा पाने पर आधिपत्य कायम किया था । जो तिब्बती शिक्षा पाना चाहता था, तो उसे भिक्षु बन कर मठ में जाकर सूत्र पढ़ना पड़ता था । लेकिन आम लोग जागीदरों के भू-दास और मठों के भू-दास थे, इस तरह सिर्फ़ कुलीन वर्ग के लोगों को सूत्र पढ़ने का मौका मिल सकता था ।

15वीं शताब्दी में युरोप ने सामंती भू-दास व्ववस्था से विदा ली, लेकिन पुराने तिब्बत में 20वीं शताब्दी के पचास वाले दशक तक जाकर ही व्यापक जनता को सच्ची स्वतंत्रता मिली।

20वीं शताब्दी के 50 वाले दशक तक पुराने तिब्बत में प्रचलित राजनीतिक व धार्मिक मिश्रित शासन व्यवस्था ऐतिहासक विकास की धारा के बिलकुल अनुकूल नहीं हो पायी । वर्ष 1951 में तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति हुई, जिस से सामंती भू-दास व्यवस्था को रद्द करने के लिए किरण फुटी । लेकिन उस समय तिब्बत के उच्च श्रेणी के व्यक्तियों को लोकतांत्रिक सुधार के प्रति आशंका थी, इस तरह लोकतांत्रिक सुधार के बारे में समझने के लिए लोगों को समय होना चाहिए । इस के अलावा तिब्बत के उच्च श्रेणी के लोगों में सम्राज्यवाद परस्त शक्ति ने जाति व धर्म की आड़ में जातीय संबंध में फुट के बीज डार कर जो गलतफ़हमी तैयार की थी, उसे दूर करने में भी समय लगेगा । इसलिए लोकतांत्रिक सुधार के लिए समय की जरूरत थी । चीन लोक गणराज्य की केंद्रीय सरकार ने लोकतांत्रिक सुधार के लिए सावधानी व निरंतरता का उसूल बनाया । केन्द्रीय सरकार ने तिब्बत के विभिन्न सुधार कार्य पर जबरन थोपने की नीति नहीं अपनायी । तिब्बत की स्थानीय सरकार को स्वेच्छे से सुधार करना था, जब तिब्बती जनता ने सुधार करने का अनुरोध किया, तो केंद्र सरकार को तिब्बत के स्थानीय अधिकारियों के साथ सलाह मशविरे के जरिए सवाल का समाधान करना था ।

शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक सुधार के लिए तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के बाद आठ वर्षों तक चीन की केंद्र सरकार समझाने बुझाने,रियायत देने व इन्तज़ार करने की नीति अपनाती रही । लेकिन तिब्बत के उच्च स्तरीय शासक ग्रुप की कुचेष्टा थी कि तिब्बत में हमेशा के लिए भू-दास व्यवस्था कायम रहे, ताकि वे हमेशा असिमित अधिकारों व हितों का उपभोग कर सके । वर्ष 1959 में उन्होंने तिब्बत की स्वाधीनता रचने तथा सामंती भूदास व्यवस्था जारी रखने की कुचेष्टा में सशस्त्र विद्रोह छेड़ा । सशस्त्र विद्रोह विफल होने के बाद दलाई ग्रुप ने विदेश में भाग कर निर्वासित जीवन बितायी। इस के दौरान उन्होंने तरह तरह सुन्दर शब्दों से तिब्बत में अपने कुशासन की लीपा-पोती कर चीन विरोधी शक्ति के समर्थन में तिब्बत स्वाधीनता रचने और भू-दास व्यवस्था को बहाल करने की कुचेष्टा की । इतिहास की प्रगति की मुख्य धारा के विपरीत और तिब्बती जनता के हितों से मेल नहीं खाने वाली उन की ऐसी हरकत कभी नहीं सफल हो सकती ।

असल में पुराना तिब्बत कुछ लोगों की कल्पना की भांति आनंदमय भूमि कतई नहीं थी । जिस तरह आज का यूरोप पांच सौ वर्ष पूर्व के मध्य युग वाले यूरोप में नहीं लौट सकता । उसी तरह आज के चीन का तिब्बत भी राजनीतिक व धार्मिक मिश्रित शासन वाली सामंती भू-दास व्यवस्था में नहीं लौट सकेगा । अगर कोई व्यक्ति तिब्बत को अंधेरी भू-दास व्यवस्था वाले समाज को बहाल करना चाहता, तो दसियों लाख तिब्बती उसे कतई इजाजत नहीं देंगे ।

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