वर्ष 1959 में तिब्बत में लोकतांत्रिक सुधार किए जाने से पहले तिब्बत में राजनीतिक व धार्मिक मिश्रित सामंती भूदास व्यवस्था लागू की जाती थी । उसी समय तिब्बती समाज में बौद्ध भिक्षु और कुलीन वर्ग का तानाशाही हो रही थी, वह एक बहुत अंधेरा समाज था, जो मध्य युग में पश्चिमी युरोप की भूदास प्रणाली से भी बदतर थी।
पुराने जमाने में तिब्बत में सभी जमीन सरकारी अधिकारियों, कुलीन वर्ग और मठों के उच्च स्तरीय भिक्षुओं के हाथ में थी । उन की जनसंख्या पुराने तिब्बत की कुल जन संख्या के पांच प्रतिशत से भी कम थी, लेकिन उन्होंने तिब्बत की सारी खेतीयोग्य भूमि, घासमैदान, वन, पहाड़ और अधिकांश पशु पर काबिज करते थे । भूदासों की संख्या पुराने तिब्बत की कुल जन संख्या के 90 प्रतिशत से ज्यादा थी । लेकिन उन के पास भूमि ही नहीं, शारीरिक स्वतंत्रता भी नहीं थी । भूदास जागीदार मालिकों के जागीर में जिन्दगी भर दास का जीवन बिताते थे । इस के अलावा, अन्य पांच प्रतिशत गुलाम जागीदारों के पारिवारिक दास भी थे । उन के पास कोई उत्पादन सामग्री नहीं थे, न कि शारीरिक स्वतंत्रता । पुराने तिब्बत में जागीदार भूदासों को अपनी निजी संपत्ति मानते थे । भूदासों का जागीदार द्वारा मनमाने ढंग से खरीद-फरोख्त किया जाता था, उपहार के रूप में दूसरे को भेंट किया जाता था और कर्ज के लिए गिरवती बनाया जाता था । यहां तक कि भूदासों की जान का फैसला भी जागीदार द्वारा अपनी इच्छानुसार किया जाता था । पुराने तिब्बत में सदियों तक प्रचलित《तेरह कानून》और《सोलह कानून》के अनुसार, तिब्बतियों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाता था और स्पष्टतः निर्धारित किया गया था कि उन के कानूनी स्थान असमान होते थे । जागीदार जैसे उच्चतम श्रेणी के लोग की जान का मूल्य उस के शारीरिक वजन के बारबार स्वर्ण की तरह था । जबकि निम्नतम भूदासों की जान का मूल्य घास की रस्सी के बराबर हल्का था । इस के साथ ही जागीदार निजी जेल भी स्थापित करते थे । अगर भू-दास उस का विरोध करते थे, तो उन्हें पकड़कर जेल में डाला जाता था और उन की आंखें खोदने, कान काटने, हाथ-पांव काटने तथा नस निकालने की क्रुरतापूर्ण सज़ी दी जाती थी ।
फ्रांसीसी तिब्बत विद सुश्री अलेक्ज़ान्द्र डाविड नील ने अपने लेख में कहा था कि पुराने तिब्बत में सभी किसान जीवन भर भूदास के शिकंजे से छुटकारा नहीं पा सकते थे । उन्हें भारी कर और लगान और बेगार चुकाना पड़ता था । उन के पास कोई भी मानवाधिकार और स्वतंत्रता नहीं था और साल ब साल गरीब होते जा रहे थे ।
सामंती भू-दास व्यवस्था वाले समाज में चाहे पुराने तिब्बत में हो, या मध्य युग के पश्चिमी युरोप में हो, उच्च स्तरीय शासन वर्ग धार्मिक अधिकार का प्रयोग कर नागरिकों पर मानसिक व विचारिक नियंत्रण करते थे । पुराने जमाने में तिब्बती लोगों के पास शारीरिक व मानसिक दोनों की स्वतंत्रता नहीं थी । राजनीतिक व धार्मिक मिश्रित शासन वाले पुराने तिब्बत में यह स्थिति और गंभीर, विषम और वहशियाना थी । चंद कुछ कुलीन व धार्मिक शक्ति एक तरफ प्रशासनिक अधिकार का प्रयोग कर जनता पर शासन करते थे, दूसरी तरफ़ वे धार्मिक विशेषाधिकार के जरिए आम प्रजा को अगले जन्म में सज़ी पाने के बहाने मानसिक धौंस धमकी भी डालते थे । ऐतिहासिक व सांस्कृतिक कारणों से तिब्बत के अधिकांश लोग बौद्ध धर्म मानते थे और वे पुनर्जन्म में विश्वास करते थे । पुराने तिब्बत में शासक वर्ग ने लोगों के धार्मिक विश्वास को उन के शासन को बनाए रखने का साधन बनाया । आम लोगों के पास अपने विचार प्रकट करने का अधिकार नहीं था । उन्हें अपने पर शासन करने वाले जीवित बुद्ध के अनुसार जीवन बिताना पड़ता था । वरना वे अपने अपराध के कारण अगला जन्म नहीं पा सकते ।
ब्रिटिश लेखक एडवुन्ड कान्डलेर ने अपने《ल्हासा की सच्चाई》नामक पुस्तक में लिखा था कि तिब्बती लोग तिब्बती बौद्ध धर्म में विश्वास करते हैं और शक्तिशाली भिक्षु वर्ग सब पर नियंत्रण करता है । वास्तव में पुराने जमाने में तिब्बत के तथाकथित शक्तिशाली भिक्षु वर्ग में सिर्फ़ अल्पसंख्यक उच्च स्तरीय भिक्षु और भिक्षु के रूप में कुलीन वर्ग शामिल थे । अधिकांश साधारण भिक्षु का स्थान भू-दास बराबर था ।
इस लेख का दूसरा भाग अगली बार प्रस्तुत होगा, कृप्या इसे पढ़े।(श्याओ थांग)