प्राचीन काल में छांग यांग नाम का एक युवा गुरू थु लुंग से तीरंदाजी सीखना चाहता था । थु लुंग ने छांग यांग से पूछाः तुम तीरंदाजी का रहस्य जानते हो . तो छांग यांग ने जवाब में कहाः आप के निर्देशन के लिए तैयार हूं । गुरू जी ने उसे तीरंदाजी का रहस्य बताने की जगह एक कथा सुनाई --- एक बार , छुन राज्य वंश का राजा युन्न मङ मैदान में शिकारी के लिए निकले , उस के सिपाहियों ने शाही बाड़ों में पालित सभी जानवरों को बाहर छोड़ा , ताकि राजा आसानी से उन का शिकार कर सके । इस तरह क्षणों में ही आकाश में बेशुमार पक्षी और घास मैदान में हजारों जानवर उड़ते दौड़ते भागते नजर आए. कभी हिरण राजा के आगे भाग रहे थे , तो कभी बारंगी राजा के अश्व के पास से दौड़ते गुजर रहे , उन का पीछा करते हुए राजा कभी हिरण को निशाना साध रहे थे , तो कभी बारंगी को । वह अभी तीर दागना चाह रहे थे कि फिर ऊपर से राजहंस उड़ते पास से गुजरती दिखाई पड़ी , तो फिर राजा को राजहंस को मार गिराने का मन आया । इसी तरह हिचकते , निशाना बदलते काफी समय बीता , फिर भी राजा के हाथ से एक भी तीर नहीं छूट पाया . असल में राजा नहीं समझता था कि आखिरकार किस जानवर का शिकार करना ठीक होगा । तभी यांग सु नाम के एक मंत्री ने राजा से कहा कि मैं भी तीरंदाजी के शौकिन हूं , जब मैं तीरंदाजी के लिए तैयार हो गया , तो सौ कदम दूर आगे पेड़ का एक पत्ता रखा जाता है ,उस पर मार करने में मुझ से हर बार निशाना अचूक होता है । दस बार निशाना बने ,दस ही बार साध होते हैं । अगर एक साथ दस पत्ते रखे गए , तो अकसर निशाना चूक होता है --- गुरू की बात छांग यांग को समझ में आई , उसे तीरंदाजी का अभ्यास करने में हमेशा एकाग्र मन लगता रहा ।
यह कथा हमें बताती है कि किस भी प्रकार का काम करने के समय एकाग्रता और लग्नता की बड़ी आवश्यकता होती है । हिचकने और समय समय लक्ष्य बदलने से काम कभी नहीं बन सकता ।