वर्ष 2008 में अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल के दाम में भारी परिवर्तन हुआ है । वर्ष के पूर्वार्द्ध में बहुत बढ़ोतरी हुई थी और वर्ष के उत्तरार्द्ध में इस में भारी गिरावट आई है । तेल के दाम में हुए भारी परिवर्तन का विश्व पर कैसा गंभीर प्रभाव पड़ेगा ?सुनिए विस्तार से:
वर्ष 2008 की 2 जनवरी को न्यूयॉर्क बाज़ार में कच्चे तेल के इतिहास में प्रथम बार प्रति पीपा सौ अमरीकी डॉलर को पार कर गया, इस के बाद से लेकर जुलाई तक लगातार बढ़ रहे तेल के दाम प्रति पीपा 147.27 अमरीकी डॉलर तक पहुंच गए, इतिहास में यह एक रिकॉर्ड है । तेल के दामों में हुई भारी बढोतरी का सारी दुनिया पर गहरा प्रभाव पड़ा है । विकसित देशों के अनेक तेल उपभोक्ता देशों और तेल उत्पादक देशों के बीच स्थिति दिन ब दिन जटिल होती जा रही है । ब्रिटिश प्रधान मंत्री ब्राऊन ने इस वर्ष के मध्य में कहा था कि तेल उत्पादक देशों द्वारा सीमित उत्पादन तेल के दाम बढ़ने का कारण है । उन का कहना है:
"जी-आठ के सदस्य देशों को एकजुट होकर तेल उत्पादक देशों पर दबाव डालना चाहिए और उन से अपील करनी चाहिए के वे तेल उत्पादन व पूंजी निवेश बढ़ाएं ताकि भविष्य में तेल आपूर्ति की स्थिति में सुधार कहो सके ।"
लेकिन इस के प्रति तेल निर्यातक देशों का संगठन यानी ऑपेक ने कम प्रतिक्रिया की । यहां तक कि ईरानी तेल मंत्री नोज़ारी ने कहा कि सवाल तेल के महंगे होने का नहीं है, सवाल है कि अमरीकी डॉलर सस्ता हो गया है । इस कथन के पीछे लोगों को राजनीति महसूस हो रही है।
तेल के उच्च दाम के मद्देनज़र पश्चिमी विकसित देशों में ऐसा स्वर उभर रहा है कि विकासमान देशों में ऊर्जा खपत बढ़ने से तेल के दाम बढ़े हैं। इस के प्रति चीनी राष्ट्रीय ऊर्जा ब्यूरो के उप निदेशक श्री सुन छिन ने अप्रेल में ग्यारहवें अंतरारष्ट्रीय ऊर्जा मंच को संबोधित करते हुए इस का खंडन किया ।
"वर्तमान में तेल के दामों में बढ़ोतरी भू-राजनीति, सट्टेबाज़ी और कमज़ोर मांग व आपूर्ति आदि कारणों से हुई है, इन में सट्टेबाज़ी प्रमुख कारण है, न कि चीन में तेल की मांग में बढ़ोतरी के कारण तेल के दाम बढ़े हैं।"
तेल के उच्च दाम के मुकाबले के लिए लोग सोचने में लगे हुए हैं, लेकिन इसी वक्त तेल के दाम में भारी गिरावट आना शुरु हो गई । इधर के पांच माह में अंतरारष्ट्रीय दाम में लगातार गिरावट आ रही है और तेल का वर्ममान दाम चार साल पूर्व के प्रति पीपा 40 अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया है। तेल का दाम कम होने पर भी ऊर्जा उपभोक्ता देशों को संतोष नहीं हो रहा है , क्योंकि महत्वपूर्ण आर्थिक सूचकांक के रूप में तेल के दाम में आई भारी गिरावट को विश्व व्यापी वित्तीय संकट के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है । विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक श्री लामी ने कहा:
"इधर के कई महीनों में हम ने अंतरराष्ट्रीय तेल के दाम और रोज़मर्रा वस्तुओं के दामों मे उतार-चढ़ाव देखा है। हम गत शताब्दी के 30 वाले दशक के बाद के सब से गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं ।"
इस वर्ष की जुलाई के पूर्व इस वित्तीय संकट का लोगों को अनुमान भी नहीं था, इस तरह अंतरराष्ट्रीय समुदाय में तेल बाज़ार में ज्यादा पूंजी लगाकर सट्टेबाज़ी की जा रही थी, इस के साथ ही अमरीकी डॉलर का मूल्य लगातार कम हो रहा था, इस तरह तेल के दाम लगातार बढ़ते रहे।
लेकिन जुलाई के बाद वित्तीय सुनामी की स्थिति और गंभीर हो रही है, वास्तविक आर्थिक समुदायों को भी भारी क्षति पहुंची है। तेल की मांग व उपभोग में गिरावट आई है । चीनी तेल विश्वविद्यालय के उद्योग व वाणिज्य प्रबंधन कॉलेज के उपकुलपति, विश्व तेल सवाल के विशेषज्ञ श्री तुंग शोछङ का विचार है कि तेल के दाम में हुई भारी बढ़ोतरी व गिरावट से विश्व राजनीतिक व आर्थिक विकास पर हानिकर प्रभाव पड़ेगा ।
वर्ष 2008 गुज़रने वाला है । तेल के दाम में आए उतार-चढ़ाव से दिन ब दिन जटिल, अनिश्चित और असंतुलित विश्व मैक्रो आर्थिक स्थिति प्रतिबिंबित हो रही है । चीनी उप राष्ट्राध्यक्ष श्री शी चिनफिन ने इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय तेल सम्मेलन में भाग लेने के वक्त कहा:
"ऊर्जा सवाल वैश्विक सवाल है । विश्व में ऊर्जा की मांग व आपूर्ति के संतुलन को आगे बढ़ाने, विश्व ऊर्जा सुरक्षा को बनाए रखना विभिन्न देशों के सामने मौजूद समान कर्तव्य है । इस सवाल का उचित रूप से समाधान करने के लिए तेल उत्पादक देशों व उपभोक्ता देशों समेत अंतरारष्ट्रीय समुदाय को समान कोशिश करनी चाहिए, वार्ता व सहयोग को मज़बूत कर मिश्रित कदम उठाए जाने चाहिंए ।"(श्याओ थांग)