2008-10-08 14:52:01

रमजान भोज तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच वार्ता का द्वार खोल सकेगा या नहीं

अमरीकी मीडीया ने इधर के दिनों में एक रहस्मय खबर देते हुए कहा कि सउदी अरब के शाह अब्बदुल्ला ने रमजान भोज के नाम पर अफगान सरकार और सरकार विरोधी सशस्त्र संगठन तालिबान के बीच पिछले महीने सउदी अरब के पवित्र शहर मैक्का में चार दिन की वार्ता कराने में सफलता हासिल की है। यह अफगान में लम्बे अर्से से चली आ रही मुठभेड़ का समाधान करने की एक बहुत ही महत्वपूर्ण वार्ता माना जाती है, यहां तक कि लोकमतों का मानना है कि यह एक बर्फ तोड़ने वाली वार्ता है।

अमरीकी सी एन एन की रिपोर्ट के अनुसार, उक्त वार्ता 24 से 27 सितम्बर तक जारी रही थी , वार्ता में 11 तालिबान के सदस्य व 2 अफगान सरकार के अधिकारी समेत अफगान के सैन्य सरदार हेकमात्यर के एक प्रतिनिधि भी वार्ता में शामिल रहे थे। उक्त खबर देने वाले के अनुसार, हालांकि तालिबान के नेता ओमार खुद इस वार्ता में उपस्थित नहीं रहे, लेकिन उसने स्पष्ट शब्दों में कहा दिया है कि वह अब अल कायदा संगठन के गठबन्धन नहीं रहे हैं। श्रो ओमार का यह रूख पहले कभी खुलासा नहीं किया गया था। सूत्रों के अनुसार, इस बार की वार्ता में विभिन्न पक्षों ने खुलेआम व पारदर्शिता रूप से विभिन्न पक्षों के रूखों व लक्ष्यों पर विचार विमर्श किया और माना कि अफगान मुठभेड़ सशस्त्र बल से नहीं बल्कि बातचीत के जरिए हल की जानी चाहिए, निकट भविष्य में सउदी अरब में एक नए दौर की वार्ता की जाएगी।

अफगान के राष्ट्रपति करजाई ने 30 सितम्बर को संवाददाताओ से कहा था कि राष्ट्र की स्थिरता व सुरक्षा के लिए वह तालिबान के नेता के साथ वार्ता करने की आशा करते हैं, इस के साथ सउदी अरब सरकार ने भी मध्यस्थता की भूमिका अदा की। अमरीकी पक्ष के बर्ताव से देखा जाए, अमरीकी सरकार ने भी इस वार्ता पर समर्थन देने का रूख अपनाया है। अमरीकी विदेश मंत्रालय के उप प्रवक्ता वुड ने 7 तारीख को कहा कि अमरीकी सरकार अफगान सरकार की सुलह योजना का समर्थन करती है, लेकिन उन्होने दो स्पष्ट पूर्व शर्ते रखी, वे यह कि तालिबान को अवश्य हिंसक त्याग देना होगा और अफगान संविधान का पालन करना होगा।

अफगान युद्ध की समाप्ति के सात साल बाद भी अफगान की सुरक्षा स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है, बल्कि स्थिति अधिकाधिक बिगड़ती जा रही है। तालिबान की शक्तियां फिर से पुनर्गठित हो रही है, हिंसक हमले बराबर बढ़ते जा रहे हैं, नाटो सेना व अमरीका के नेतृत्व वाली अफगान गठबन्धन सेना की हताहती तीव्रता से बढ़ रही है। अधिकाधिक लोगों ने महसूस किया है कि सैन्य माध्यम से सफलता की गुंजाइश बहुत ही कम है।अमरीका के संयुक्त चीफ आफ स्टाफ मुलेन समेत कुछ अमरीकी वरिष्ठ सैन्य कमांडरो ने भी इधर के दिनों में स्वीकार किया कि केवल सैन्य हमले से आतंक विरोधी युद्ध को जीतना बहुत ही मुश्किल है। अफगान के रक्षा मंत्री ने भी 5 तारीख को कहा कि सैन्य माध्यम से अफगान के सवाल को हल नहीं किया जा सकता है, इस के साथ राजनीतिक व आर्थिक कार्यवाहियों को भी सम्मिलत किया जाना चाहिए। इस से देखा जा सकता है कि अमरीकी सरकार के तालिबान के साथ वार्ता करने को राजी होना असल में एक मजबूरी ही है।

इस बार अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता का सफल आयोजन सउदी अरब सरकार के लम्बे अर्से के प्रयासों का परिणाम है। सूत्रों के अनुसार, दो साल पहले से ही सउदी अरब सरकार ने पर्दे के पीछे से मध्यस्थता करना शुरू कर दिया था । इस बार की वार्ता को सफल बनाने के लिए सउदी अरब पर्दे के पीछे से आगे आ गए हैं. यहां तक कि शाह खुद इस प्रयास में शामिल रहे हैं। वास्तव में सउदी अरब का तालिबान पर हमेशा से भारी प्रभाव रहा है। सउदी अरब एक महत्वपूर्ण सुन्नी मुस्लिम देश है, इस्लाम के दो पवित्र स्थल मैक्का और मेदीना सभी सउदी अरब में हैं। पिछली शताब्दी के 90 वाले दशक में सउदी अरब तालिबान को मान्यता देने वाले चन्द देशों में एक रहा था। लेकिन इस से पहले सउदी अरब पाकिस्तान के जरिए तालिबान के साथ संपर्क बनाए रखे हुआ था।

पाकिस्तान के मुस्लिम लीग (शरीफ) के नेता श्री शरीफ ने भी अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता करने में शानदार भूमिका अदा की है। कुछ समय पहले ब्रिटेन से स्वेदश लौटे श्री शरीफ अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता को मूर्त रूप देने के लिए सउदी अरब शाह के निमंत्रण पर सउदी अरब के लिए रवाना हुए थे। सउदी अरब की तुलना में श्री शरीफ की खूबी यह है कि उनका अफगान के विभिन्न पक्षों के बीच उम्दा संबंध कायम रहा है।

ध्यान देने की बात तो यह है कि तालिबान ने इस पर इतनी सक्रियाशीलता नहीं दिखाई है। पाकिस्तान स्थित पूर्व तालिबान के राजदूत जाइफ ने कहा कि वह केवल सउदी अरब के निमत्रण पर रमजान की समाप्ति का भोज लेने गए थे, अफगान सरकार, सैन्य सरदार व तालिबान के प्रतिनिधि भी इस निमंत्रण में सउदी अरब में एकत्र हुए थे, लेकिन उन्होने अफगान सवाल से संबंधित कोई विचार विमर्श नहीं किया। तालिबान के एक प्रवक्ता अहमादी ने भी 6 तारीख को तालिबान और अफगान सरकार के बीच किसी तरह की वार्ता करने की बात से इन्कार कर दिया । अलबत्ता इस बात को नाकारा नहीं जा सकता है कि इस बार की वार्ता अफगान की शान्ति की ओर बढ़ाया एक सक्रिय कदम है, लेकिन तालिबान के भीतर बहुत से सांप्रदायिक दल हैं, स्थिति भी बेहद जटिल है, अन्ततः इस बार की वार्ता आतंक विरोधी युद्ध पर किस तरह का प्रभाव डाल सकती है, इस पर लोग कड़ी नजर रखे हुए हैं।