चो य्वान-छ्यांग इस समय मध्य चीन के च्यांगशी प्रांत के चिन-छंग कस्बे में एक सांस्कृतिक केंद्र के महानिदेशक हैं।51 वर्षीय दुबले-पतले, मध्यम कद के वह शत-प्रतिशत सीधे-सादे साधारण किसान दिखते हैं। उन के व्यक्तित्व में कोई बनावट नहीं है। ग्रामीण लोगों की नजर में वह शत-प्रतिशत महा टीवी फिल्म निर्देशक हैं और चढ़-बढ़कर वे उन के साथ सहयोग करने की कोशिश करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उन की टीवी फिल्मों में गांववासियों को भी मुख्य भूमिकाएं निभाने के मौके दिए जाते हैं।अब तक च्यो य्वान-छ्यांग ने 61 खंडों के 27 टीवी धारावाहिक निर्मित किए हैं और 1300 गांववासियों ने इन में विभिन्न भूमिकाएं अदा की हैं।इस समय देश के अन्य क्षेत्रों और यहां तक कि विदेशों से भी अनेक लोग उन्हें पत्र भेजकर उन की कृतियों में अभिनय करने का प्रयास कर रहे हैं।हां,अन्य टीवी फिल्म निर्माण दलों से अलग उन के कार्य-दल में कोई भी पेशावर अभिनेता या अभिनेत्री नहीं है। और सभी कर्मचारियों व फिल्मों में अभिनय करने वाले लोगों को कोई आमदनी नहीं होती है।श्री चो य्वां-छ्यांग ने परिचय देते हुए कहाः
"हमारे यहां पेशावर अदाकारों की जरूरत नहीं है।टीवी फ़िल्म बनाने का हमारा उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, बल्कि गांववासियों को खुशी देना है।इसलिए हमारी टीवी फ़िल्मों में पैसा लिए बगैर भूमिका निभाना चाहने वाले लोगों का तांता लगा रहता है।खुद के मनोरंजन के लिए टीवी फ़िल्म बनाना गांववासियों के लिए अपने आप में एक आन्नददायक अनुभव है।कहा जा सकता है कि इस तरह की जितनी भी फ़िल्में बनाई गई हैं,गांववासियों की उत्सुकता उतनी ही अधिक बढी है।"
चो य्वान-छ्यांग ने क्यों अपने इस अद्वितीय तरीके से ग्रीमाण टीवी फिल्म बनाने की सोची ? इस प्रश्न के जवाब में उन्हों ने कोई 30 साल पुरानी याद ताजा करते हुए कहा कि सन् 1971 में जब वह 16 साल के थे,तब एक दिन उन्हों ने खेती में धान रोपने के दौरान देखा कि बहुत से गांववासी इकट्ठे होकर सडक के किनारे पड़े कुछ फटे-पुराने काग़ज ध्यानपूर्वक देख रहे हैं।निकट जाकर उन्हों ने पाया कि इन काग़जों पर कार्टून चित्र बने हुए हैं।उस समय चीन बहुत पिछड़ा हुआ था और लोगों का आध्यात्मिक जीवन शून्य सा था।ग्रामीण क्षेत्र में कोई चित्रयुक्त पुस्तक मिलना भी खासा कठिन था।जो कुछ भी चित्र मिलते थे,वे किसानों का आध्यात्मिक खाद्यान्न बनते थे।चित्रों में गांववासियों की इतनी दिलचस्पी देख कर चो य्वान-छ्यांग काफी प्रभावित हुए।उन का कहना हैः
"गांववासियों की जिज्ञासा पूरी करने के लिए मैंने गांव में एक सांस्कृतिक केंद्र बनाने का सुझाव प्रस्तुत किया।गांव की पंचायत ने गंभीरता से विचार-विमर्श के बाद उस सुझाव को मंजूरी दे दी।इस तरह मैं ने अपनी जमा कम पूंजी से 65 पुस्तकें, शतरंज और ताश खरीदकर सांस्कृतिक केंद्र खोला"
वास्तव में चो य्वान-छ्यांग हमेशा दूसरों से आगे चलते हैं।वर्ष 1984 में जब चीन को अपने द्वार को विदेशों के लिए खोले हुए अभी कुछ ही साल हुए थे,तब उन्होंने बैकों से ऋण लेकर रंगीन टीवी,वीडियो कैमरा और वीडियो दिखाने वाली मशीन खरीदी।ये इलेक्ट्रोनिक उपकरण उस समय के चीनी शहरवासियों के घरों में भी देखने को कम मिलते थे।इन उपकरणों से बाहरी दुनिया की रंगबिरंगी संस्कृति गावंवासियों के निकट पहुंची और गांववासियों की आंखें खुल गईं। 1991 में चो य्वान-छ्यांग ने दुबारा बैंकों से ऋण लेकर नए किस्म का एक अत्यंत आधुनिक वीडियो कैमरा खरीदा।पहले वह इस कैमरे से सिर्फ विशेष मौकों पर गावंवासियों के लिए वीडियो बनाते थे,लेकिन बाद में उन्हों ने एक बुजुर्ग के सुझाव से प्रेरित होकर टीवी फिल्म बनाने का फैसला किया।उन्हों ने कहाः
"एक बार मैं पुस्तकें पहुंचाने के लिए एक किसान के घर गया।उस घर के एक बुजुर्ग ने मुझे एक महत्वपूर्ण सूचना दी।उन्हों ने कहा कि उन का गांव चीनी क्रांति का एक आधार-केंद्र था।पिछली शताब्दी के 20,30 वाले दशकों में बहुत से क्रातिकारी वहां शहीद हुए थे।बुजुर्ग ने सुझाव दिया कि हमारा सांस्कृतिक केंद्र देश के लिए इन क्रांतिकारियों द्वारा किए गए योगदान का प्रचार-प्रसार करे।बुजुर्ग के इस सुझाव से मेरे दिमाग में अचानक यह विचार आया कि क्यों न हम किसानों के यथार्थ जीवन पर किसानों की भागीदारी वाली टीवी फ़िल्म बनाएं ? क्योंकि बहुत से किसानों की ओर से अक्सर यह सुनने को मिलता था कि फलाँ-फलाँ फिल्म में कैसे किसी अभिनेता या अभिनेत्री ने किसान की भूमिका अच्छी तरह निभाई है। और यह कि हमारी बारी कब आएगी कि खुद हमारे जैसे किसानों को फिल्मों में किसानों का अभिनय करने का मौका मिले।"