2008-02-25 14:24:33

ल्हासा की बार्खोर सड़क का दौरा

अगर आप ने तिब्बत स्वायत्त प्रदेश की राजधानी ल्हासा की यात्रा की हो, तो आप जरूर वहां की बार्खोर सड़क को जानते होंगे । यह सड़क ल्हासा में ही नहीं, समूचे तिब्बत में बहुत मशहूर है । वाणिज्य केंद्र के नाते हर रोज बेशुमार पर्यटक और व्यापारी यहां आते हैं । बार्खोर सड़क का इतिहास पुराना है, जहां तिब्बती शैली की, नेपाली शैली की और चीन के भीतरी इलाकों की दुकानें सजी हुई हैं । 

बार्खोर सड़क तिब्बत स्वायत्त प्रदेश की राजधानी ल्साहा के केंद्र में स्थित है, उस का एक और नाम है बाच्याओ सड़क । सड़क के पास विश्वविख्यात जोखान है । बार्खोर सड़क गोलाकार है और इस की लम्बाई एक हज़ार मीटर से अधिक है । इस का इतिहास 1300 वर्ष से भी पुराना है । सारी सड़क हाथों से ला ला कर रखे बड़े पत्थरों से बनी हुई है। विशाल न होने के बावजूद हर रोज़ यहां आने वाले यात्रियों की संख्या ल्हासा में सब से ज्यादा है ।

मैं ने बार्खोर सड़क का दौरा किया था । सड़क में खड़े होकर पता चलता है कि यह कितनी समृद्ध है, भिन्न-भिन्न दुकानों की सजावट अलग-अलग है, पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है । आंकड़ों से पता चलता है कि बार्खोर सड़क पर व्यापार करने वाली अस्थाई दुकानों की संख्या एक हज़ार से अधिक है । सड़क के दोनों किनारों पर खड़ी दुकानों में तिब्बती शैली के वस्त्र, चाकू और धार्मिक चीजें बेची जाती हैं । इन के अलावा भारत और नेपाल से आयातित अनेक वस्तुएं भी खरीदी जा सकती हैं। बार्खोर सड़क की कई दुकानों के मालिक ल्साहा में रहने वाले मुस्लिम व नेपाली मूल के लोग हैं, जिन में श्यामुकपू नामक दुकान मशहूर है । श्यामुकपू बार्खोर सड़क के उत्तर भाग में स्थित है, उस की दुकान के बाहर विभिन्न कालों के तीन तख्ते रखे हुए हैं, जिसे देखकर लोगों को पता चल जाता है कि दुकान का इतिहास जरूर बहुत पुराना है । दुकान में प्रवेश करते ही कमरे में पड़ी एक मेज़ पर एक काला-सफेद फोटो दिखाई पड़ता है । फोटो में एक नेपाली पुरूष है, जो सिर पर सफेद टोपी पहने हुए है । श्यामुकपू के दुकानदार श्री रत्न ने हमें बताया कि यह पुरूष उन के दादा जी हैं । गत शताब्दी के शुरू में उन्होंने नेपाल से तिब्बत आकर व्यापार करना शुरू किया था । दुकानदार श्री रत्न ने कहा

"यह है श्यामुकपू, मेरे दादा जी । उस समय जब वे ल्हासा में रहते थे, तिब्बती लोग उन का नाम नहीं बता सकते थे । स्थानीय लोगों ने दादा जी को सिर पर हमेशा सफेद टोपी और शरीर पर सफेद वस्त्र पहने हुए देखा, तो उन्होंने दादा जी को श्यामुकपू कहना शुरु कर दिया, जिस का मतलब है सफेद टोपी । इस तरह धीरे-धीरे हमारी दुकान का नाम श्यामुकपू पड़ गया ।"

श्यामुकपू बार्खोर सड़क पर नेपाली शैली वाली दुकान का प्रतिनिधित्व करती है । यह बार्खोर सड़क की पुरानी दुकानों में से एक है । दुकान में मुख्य तौर पर विभिन्न कालों की स्वर्ण बौद्ध मूर्तियां और प्राचीन नकली कलात्मक वस्तुएं बेची जाती है । दुकान में बेची जाने वाली वस्तुएं नेपाल में बनती हैं । अपने सब से समृद्ध काल में दुकान का व्यापार बहुत बड़ा था, कहा जाता है कि तिब्बत में प्रथम मोटर साइकिल श्यामुकपू नेपाल से चीन-नेपाल सीमा पर स्थित चोमुलांमा पर्वत से तिब्बत में लाए। 

बार्खोर सड़क पर आने के बाद पर्यटकों को माचीआमी नामक रेस्तरां जाना जरूरी है । सड़क के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित यह रेस्तरां तिब्बती शैली की दुमंजिला इमारत है । तिब्बती भाषा में माचीआमी का मतलब पवित्र माता या पवित्र लड़की है । रेस्तरां के मैनेजर चलांग वांगछिंग ने जानकारी देते हुए कहा कि इस रेस्तरां का नाम एक लोक कथा से जुड़ा हुआ है । कहा जाता है कि तीन सौ साल पूर्व तिब्बती बौद्ध धर्म के आचार्य छठे दलाई लामा छांगयांग च्यात्सो दुमू देवी की खोज में अनेक बार ल्हासा की सड़कों पर व रेस्तरां में आते-जाते थे । चलांग वांगछिंग ने यह कहानी सुनाते हुए कहा

"छठे दलाईलामा छांगयांग च्यात्सो माचीआमी के रेस्तरां में अंदर आने के बाद एक बहुत सुन्दर लड़की भी यहां पहुंची । वह रेस्तरां में प्रवेश करन के बजाए द्वार के बाहर से रेस्तरां में ज़रा सा झांक कर चली गई। छांगयांग च्यात्सो ने लड़की को देखा । उन्हें लगा कि ऐसी सुन्दर लड़की को कभी नहीं देखा । वे रेस्तरां के बाहर आ गए, लेकिन सुन्दर लड़की गायब हो गयी । बाद में छठे दलाईलामा ने मान लिया कि यह लड़की दुमु देवि का अवतार है । इस तरह बाद में छठे दलाई लामा दूसरी बार, तीसरी बार माचीआमी रेस्तरां आते रहे, लेकिन वह लड़की फिर नहीं दिखाई पड़ी।"

इस लेख का दूसरा भाग अगली बार प्रस्तुत होगा, कृप्या इसे पढ़े ।(श्याओ थांग)