शी क्वो-ल्यांग इस साल 51 वर्ष के हो गए हैं। घर छोड़ बौद्ध बनने से पूर्व भी उन्हें चित्रकार के रूप में बड़ी ख्याति प्राप्त हुई थी। खेतीबारी करते किसान,सिलाई करतीं ग्रामीण महिलाएं,
देहाती बाजार,सौदा करते व्यापारी और अन्य आकृतियों वाले उन के चित्र यथार्थवादी शैली में बनाए गए हैं। इसलिए वे जीवन के रस से सराबोर हैं और चित्र-प्रेमियों की पसंद भी हैं। उन की एक कृति को 23वीं मांडिकोलो अंतर्राष्ट्रीय चित्रकला प्रतियोगिता में यूनेस्को के संबद्ध सर्वोच्च पुरस्कार से अलंकृत किया गया और अन्य अनेक कृतियों को भी चीनी संस्कृति मंत्रालय की ओर से पुस्कार मिले हैं।
शी क्वो-ल्यांग को बचपन से ही चित्रकला में रूचि रही है और 7 वर्ष की उम्र में ही उन्हों ने चित्र बनाना शुरू कर दिया था।पिछली शताब्दी के 70 वाले दशक में उन्हों ने क्रमशः चीन के मशहूर चित्रकार श्री ह्वांग-चो और सुश्री चो सी-छोंग को अपना गुरू मानकर उन से परंपरागत चीनी चित्रकला सीखी। पाश्चात्य तैल-चित्र से भिन्न परंपरागत चीनी चित्र ब्रश,श्वान नामक एक विशेष प्रकार का पतला लेकिन टिकाऊ कागज और रंगीन स्याही से बनाया जाता है। इस शैली में बने चित्रों की रेखाएं साफ-सुथरी और सरल हैं,पर चित्रित दृश्य सारगर्भित हैं।श्री ह्वांग-चो और सुश्री चो सी-छोंग यथार्थवादी शैली में मानव-आकृतियों के चित्र बनाने में निपुण थे। उन की इस विशेषता का शी क्वो-ल्यांग के कृति रचने के विचार पर बड़ा प्रभाव पड़ा। कई साल पहले इन दो विख्यात चित्रकारों का स्वर्गवास हो गया।आज भी शी क्वो-ल्यांग इन दो गुरुओं की याद करते हुए भावविभोर हुए बिना नहीं रह पाते हैं। उन के विचार में उन दो महाचित्रकारों का शिष्य बनना उन का सौभाग्य है।उन्हों ने कहाः
"मैं बहुत सौभाग्यशाली महसूस करता हूं। मैं ने उस अच्छे युग का लाभ लिया है, जब अनेक महान चित्रकार रहते थे और खुद उन्हों ने मुझे शिक्षा दी।अगर कहा जाए कि मेरा चित्र बनाने का बुनियादी ज्ञान मजबूत है और कृति रचने की नीवं पुख्ता है,तो इस का श्रेय़ इन दो गुरुओं को जाना चाहिए। उन का शिष्य बनने से मुझे आजीवन फायदा मिला है।"
शी क्वो-ल्यांग ने कहा कि महान चित्रकारों की शिक्षा में उन का चित्र बनाने का स्तर बहुत तेजी से उन्नत हुआ। इस से पिछली शताब्दी के 80 वाले दशक के शुरू में उन्हें चीनी केंद्रीय ललितकला प्रतिष्ठान में आगे अध्ययन करने का मौका मिला। अध्ययन के दौरान उन्हों ने अनेक व्यक्तिगत चित्र-प्रदर्शनियां भी लगाईं और चित्रकला जगत में अपनी पहचान कायम की।परंपरागत चीनी चित्र बनाने की अपनी शैली में प्रगति और सुधार के लिए वह 80 वाले दशक के अंत में कैनेडा जाकर बस गए। वहां उन्हों ने करीब 10 साल तक पाश्चात्य शैली में चित्र बनाने की कला सीखी। एक अवधि में अवकाश के समय उन्हें बहुत अकेलापन महसूस हुआ। अंतरात्मा के सहारे के रूप में वह एक चीज पाना चाहते थे। सन् 1995 में कैनेडा में एक भव्य परोपकारी समारोह आयोजित हुआ,जिस में विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित एक बौद्ध विद्वान ने उन से कहा कि वह देखने में बिल्कुल बौद्ध जैसे लगते हैं। इस बात से शी क्वो-ल्यांग एकदम जग गए और उन्हें अपना भावी रास्ता मालूम पड़ गया। उन्हों ने कहा हैः
"उस बौद्ध विद्वान ने मेरे दिल की बात कह दी।उन की बात सुनकर मेरी आंखें नम हो गईं। उस समय मैं किसी धर्म का दीवाना था।कैनेडा में मेरे मित्र बहुत कम थे और स्थानीय लोगों से संपर्क करने में भाषा भी आड़े आती थी। ऐसे में मैं अकेलेपन से ज्यादा पीड़ित था और अकेलेपन से निजात पाने के लिए धर्म का रूख लिया था।बौद्ध-भिक्षु की जीवन-शैली मुझे बहुत भाती है और बौद्ध बनना मेरा सपना रहा है। "
सन् 1995 में शी क्वो-ल्यांग औपचारिक तौर पर मुंडन करवाकर बौद्ध बने और उन्हें शी ह्वई-छान का धार्मिक नाम दिया गया। तब से उन्हें बौद्ध-भिक्षु और चित्रकार जैसी दो हैसियतें हासिल हुईं।