भारत और चीन: संवाद की प्राचीन परंपरा से आधुनिक विश्व को राह

02:39:49 2025-07-17

हाल ही में चीन की राजधानी बीजिंग में आयोजित वैश्विक सभ्यता संवाद मंत्रिस्तरीय बैठक में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने गहराई से सोचने पर मजबूर करने वाली बात कही। उन्होंने कहा कि जब दुनिया परिवर्तन और अस्थिरता के दौर से गुजर रही हो, जब मानवता एक नए चौराहे पर खड़ी हो, तब संवाद, साझी समझ और आपसी सीख की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक होती है। टकरावों से ऊपर उठकर, विभिन्न सभ्यताओं को एक-दूसरे के अनुभवों से सीखना होगा।

यह विचार भारतीय सभ्यतागत चेतना के मूल में भी गहराई से निहित है। भारत के महाकाव्य— रामायण और महाभारत—सिर्फ पौराणिक कथाएं नहीं, बल्कि मानवता, नैतिकता, न्याय, संघर्ष और सह-अस्तित्व के गहन जीवन-पाठ हैं। ये हमें बताते हैं कि असहमति और संघर्ष की स्थितियों में भी संवाद और समाधान की संभावना बनी रहती है।

महाभारत की त्रासदी इस बात की जीवंत मिसाल है कि संवाद के अभाव में क्या भयावह परिणाम हो सकते हैं। जब पांडवों को उनके अधिकार से वंचित किया गया, और अहंकार, ईर्ष्या, वर्चस्व और संकीर्णता ने संवाद के सभी रास्ते बंद कर दिए, तब धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र रणक्षेत्र बन गया। श्रीकृष्ण ने शांति के लिए बार-बार पहल की— “पांच गांव दे दो, बस।” लेकिन जब दुर्योधन ने सुई की नोक जितनी भूमि देने से भी इनकार कर दिया, तब युद्ध अनिवार्य हो गया। यह हमें सिखाता है कि संवाद की अनदेखी सभ्यताओं को विनाश की ओर धकेल सकती है।

इसके विपरीत, रामायण एक आदर्श दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। जब रावण ने सीता का अपहरण किया, तब भी श्रीराम ने पहले संवाद, कूटनीति और सहयोग के मार्ग को अपनाया। विभीषण जैसे पात्र यह संकेत देते हैं कि असहमति और अन्याय के बीच भी संवाद, आत्मचिंतन और परिवर्तन की संभावना हमेशा बनी रहती है। राम की सेना में वानर, रीछ, वनवासी जैसे विविध समुदायों का समावेश इस बात का प्रतीक है कि विविधता को स्वीकारना और उसे एकता में बदलना ही सभ्यता की असली शक्ति है। यही “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना है— संपूर्ण धरती को एक परिवार मानने की सोच।

आज की दुनिया भी एक ऐसे ही चौराहे पर खड़ी है, जैसा कि कभी हस्तिनापुर था। राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धाएं लगातार गहराती जा रही हैं, और उनके बीच संदेह, तनाव और टकराव की आशंकाएं भी। सवाल यह है—क्या हम महाभारत की गलती दोहराएंगे या रामायण की शिक्षाओं से प्रेरणा लेकर संवाद का रास्ता अपनाएंगे?

भारतीय महाकाव्य आधुनिक विश्व को भी दिशा दे सकते हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि विभिन्न सभ्यताओं के बीच संवाद और आपसी सीख टकराव को टाल सकते हैं और एक सामंजस्यपूर्ण, साझा भविष्य की नींव रख सकते हैं। राष्ट्रपति शी चिनफिंग का यह आह्वान कि “सभ्यताओं के लिए आदान-प्रदान और आपसी सीख ज़रूरी है”, दरअसल उसी सिद्धांत की ओर इशारा करता है जिसे भारत सदियों से जीता आया है— समावेशिता, सह-अस्तित्व और निरंतर संवाद।

दुनिया की दो सबसे प्राचीन और जीवित सभ्यताएं भारत और चीन इस संदर्भ में विशेष भूमिका निभा सकते हैं। दोनों देशों की सांस्कृतिक परंपराएं युद्ध नहीं, संवाद को प्राथमिकता देती हैं। चाहे वह कन्फ्यूशियस की "सह-अस्तित्व की नैतिकता" हो, या उपनिषदों का “एकं सत विप्रा बहुधा वदंति”—सत्य एक है, पर दृष्टिकोण अनेक— इन विचारों में एक साझा सोच है, जो शांति और सहयोग की ओर ले जाती है।

जब दुनिया के सामने सभ्यताओं के टकराव की आशंकाएं गहरा रही हैं, तब भारत और चीन जैसे देश निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। महाभारत हमें चेतावनी देता है कि संवादहीनता विनाश का मार्ग है, जबकि रामायण प्रेरणा देती है कि संवाद और समावेशिता ही स्थायी समाधान हैं।

सभ्यताओं के बीच संवाद सिर्फ कूटनीतिक भाषा नहीं, बल्कि यह मानवीय आवश्यकता है। यदि भारत और चीन मिलकर "मानव जाति के साझा भविष्य वाले समुदाय" की दिशा में काम करें, तो यह न केवल दोनों देशों के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक नई राह खोल सकता है। क्योंकि जब सभ्यताएं संवाद करती हैं, तब इतिहास नहीं, भविष्य लिखा जाता है।

(अखिल पाराशर, चाइना मीडिया ग्रुप (CGTN हिन्दी), बीजिंग)