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तिब्बती बौद्ध धर्म का जोखांग मठ
2011-12-21 10:14:28

जोखांग मठ का तिब्बती भाषा में यह नाम भी है चुलाखांग जिसका अर्थ सूत्र महल, बौद्ध महल, लामा महल। इस महल का एक और नाम है जागृति महल जिसका अर्थ भगवान बुद्ध से भी है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस महल में स्थापित बुद्ध मूर्ति महारानी वनछङ के द्वारा थांग राजवंश की राजधानी छांग आन से लायी गयी थी। ऐसा कहा जाता है कि यह मूर्ति भगवान बुद्ध की किशोरावस्था की मूर्ति है जो 12 साल की उम्र वाले भगवान बुद्ध जितनी ऊंची है और खुद उन्हीं के द्वारा स्थापित की गयी थी। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह मूर्ति लगभग ईसा पूर्व 544 साल की है जो कि भगवान बुद्ध के महानिर्वाण से पहले की है। इस मूर्ति के बारे में वहां की गाइड ली श्याओह्वा ने हमें बताया:

"अभी आप जो मूर्ति देख रहे हैं वह लगभग 2500 साल पुरानी है। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में तीन मूर्तियों की स्थापना की थी। जिनमें से एक उनके 8 साल की उम्र वाली मूर्ति चीन के महा सांस्कृतिक क्रांति काल में नष्ट कर दिया गया था। दूसरी मूर्ति जो 25 साल की उम्र वाली मूर्ति थी, वह भारत में लुप्त हो गयी। इसलिए तीसरी और सबसे अंतिम यही मूर्ति है जिसे भगवान बुद्ध ने स्वयं स्थापित किया था। इसलिए यहाँ आने वाले तिब्बती लोगों को भगवान बुद्ध की मूर्ति देखने के बाद ऐसा महसूस होता है जैसे उन्होंने साक्षात भगवान बुद्ध का दर्शन कर लिया हो।"

यहाँ पर ऐसी कहानी प्रचलित है कि जोखांग मठ के निर्माण में कई तरह की बाधाएं उत्पन्न हुई थीं। यह मठ कई बार बाढ़ में ध्वस्त हो गया था। इसके निर्माण का कोई उपाय नहीं दिख रहा था। महारानी वनछङ ज्योतिष व वास्तुशास्त्र में निपुण थी। उन्होंने सर्वेक्षण के आधार पर कहा कि समूचे तिब्बत की भूमि की आकृति एक राक्षस की तरह है जिसके दिल में एक झील है। जबतक इस झील को मिट्टी भरकर समतल नहीं किया जाएगा तबतक यहाँ पर मठ का निर्माण असंभव है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मिट्टी पहाड़ी बकरियों के द्वारा ही लाकर भरी जानी चाहिए। तब से यहाँ पर यह कहानी भी बहुत प्रसिद्ध हो गया। हमारी गाइड ली श्याओह्वा ने जानकारी देते हुए कहा:

"जोखांग मठ के द्वार पर एक प्रसिद्ध उक्ति अंकित है। जैसा कि मैंने अभी कहा है, यह मठ हजारों पहाड़ी बकरों के द्वारा मिट्टी लाकर भरने के बाद खड़ा किया जा चुका था। इसलिए तिब्बती राजा सांगत्सेन गांपो ने मठ के एक कोने में पहाड़ी बकरे की एक सफेद प्रतिमा स्थापित करने की आज्ञा दी और आदेश दिया कि इस पहाड़ी बकरे की भी पूजा की जाएगी। इसलिए ल्हासा शहर का नाम भी पहाड़ी बकरे से संबंधित है। तिब्बती भाषा में पहाड़ी बकरा शब्द का अर्थ गर्मी से होता है और सा का अर्थ मिट्टी है। क्योंकि बकरे के द्वारा मिट्टी ढ़ोयी गयी थी इसलिए ल्हासा का नाम भी इस कहानी से जुड़ा है। बाद में धीरे-धीरे ला का अर्थ बुद्ध और सा का अर्थ मिट्टी हो गया। अंततः लोग ल्हासा को बुद्ध की पवित्र भूमि भी कहते हैं।"

 

वास्तव में जोखांग मठ में नेपाल की राजकुमारी भृकुटी की लायी गयी प्रतिमा की स्थापना होनी थी, जबकि दूसरे मठ रामुछी में राजकुमारी वनछङ के द्वारा लायी गयी मूर्ति की स्थापना होनी थी। तो सवाल उठता है कि आज क्यों जोखांग में वनछङ की लायी मूर्ति स्थापित है?जब हमने पर्यटक गाइड ली श्याओह्वा से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा:

"बाद में थांग राजवंश का तिब्बत के साथ भीषण संघर्ष हुआ था। कहा जाता है कि उस समय थांग राजवंश की महिला शासक वु त्स थिएन ने तिब्बत पर आक्रमण किया तथा उस बुद्ध मूर्ति को वापस लाना चाहती थी। मूर्ति बचाने के लिए तिब्बती लोगों ने उस मूर्ति को रामुछी मठ से जोखांग मठ में छुपा दिया। यह मूर्ति लगभग साठ सालों तक उसी मठ में छुपाकर रखी गयी। बाद में जब थांग राजवंश की राजकुमारी छिन छङ की शादी तिब्बती राजा के साथ हुई तब उन्होंने गुप्त तहखाने से उस मूर्ति को निकालकर औपचारिक रूप से जोखांग मठ में स्थापित कर दिया। इस तरह से यह मूर्ति आज तक जोखांग में ही स्थापित हुई है।"


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