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तिब्बती लिपि का इतिहास
2013-08-27 19:24:28

तिब्बती लिपि, जिसके माध्यम से तिब्बती लोग संपर्क के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं, का इतिहास बहुत पुराना है, जो पूरे चीन में विभिन्न जातियों की भाषाओं में चीनी हान जातीय भाषा के बाद दूसरे स्थान पर आता है। आज तिब्बती भाषा में प्रयोग की जा रही तिब्बती लिपि पीढ़ियों के तिब्बती लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है। तिब्बती लिपि के जन्म के बारे में कुछ कथाएं प्रचलित हैं। कुछ लोग कहते हैं कि तिब्बती लिपि मशहूर ऐतिहासिक व्यक्ति थुनमी सांगपूजा द्वारा भारतीय भाषा संस्कृत के आधार पर रची गई थी। वहीं कुछ लोग कहते हैं कि तिब्बती लिपि प्राचीन चित्र-लिपि से विकसित हुई। चाहे तिब्बती लिपि का अस्तित्व किसी भी तरीके से आया हो, वह तिब्बती जाति की संस्कृति के प्रसार-प्रचार में बड़ी भूमिका निभाती है।

तिब्बत स्वायत्त प्रदेश की राजधानी ल्हासा के उत्तरी भाग में 600 वर्गमीटर वाले एक विशाल पत्थर पर एक वास्तुनिर्माण किया गया है, जो 1300 वर्ष पहले निर्मित एक महल है, जिसमें राजकुमारी वनछङ और राजा सोंगचान कानपू रहते थे। थांग राजवंश(सन्618-907) की राजकुमारी वनछङ तत्कालीन तिब्बत के थूपो वंश के राजा सोंगचान कानपू के साथ शादी के लिए भीतरी इलाके में तत्कालीन थांग राजवंश की राजधानी छांगआन से हज़ार किलोमीटर दूर स्थित छिंगहाई-तिब्बत पठार पर आई। राजकुमारी वनछङ और राजा सोंगचान कानपू के बीच प्रेम कहानी हज़ार वर्षों से चीनी हान और तिब्बती जातियों में बहुत लोकप्रिय है।

तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के सामाजिक विज्ञान अकादमी के धर्म अनुसंधान केंद्र के अनुसंधानकर्ता नोरी च्यानत्सो ने ल्हासा के उत्तर में खड़े इस विशाल पत्थर के बारे में जानकारी देते हुए कहा:

"एक पूर्ण पत्थर पर मठ के रूप में एक वास्तु निर्माण का आज तक सुरक्षित रहना, ऐसा विश्व में बहुत कम देखा जाता है। इस पत्थर का इतिहास बहुत पुराना है। तिब्बती लोग इसे फापांग खा कहते हैं। तिब्बती भाषा में'फापांग'का अर्थ बड़ा पत्थर है, जबकि'खा'का अर्थ है ऊपर होना, कुल मिलाकार'फापांग खा'का अर्थ पत्थर पर महल ही होता है। इसका इतिहास तिब्बती भाषा की रचना से संबंधित है।"

फापांग खा विश्वविख्यात पोताला महल के सामने स्थित है। कहते हैं कि एक बार राजा सोंगचान कानपू ने इस महल में विदेशी राजनीतिक दूतों से मुलाकात करते समय उनके द्वारा प्रस्तुत प्रत्यय-पत्र स्वीकार किया था। इसी दौरान उन्हें थूपो वंश के पास कुछ कमी महसूस हुई, वह कमी थी तिब्बती लिपि की। उस समय थूपो वंश शक्तिशाली था और कई देश उसके साथ अपने संबंध बढ़ाना चाहते थे। लेकिन लिपि न होने के कारण थूपो वंश और दूसरे देशों के बीच लिखित संपर्क नहीं हो पाता था। राजा सोंगचान कानपू को ये बात चुभ गई। उन्होंने इस स्थिति को बदलने का निश्चय किया। इसके बारे में जानकारी देते हुए तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के सामाजिक विज्ञान अकादमी के धर्म अनुसंधान केंद्र के अनुसंधानकर्ता नोरी च्यानत्सो ने कहा:

"बोन धर्म के ग्रंथों के अलावा आम ऐतिहासिक ग्रंथों में माना जाता है कि सोंगचान कानपू काल के पूर्व तिब्बती लिपि नहीं थी, जो हमारे द्वारा आज प्रयोग की जा रही है। आज की तिब्बती लिपि सोंगचान कानपू के शासन काल में रची गई थी। उस समय थूपो वंश शक्तिशाली था। राजा सोंगचान कानपू का विचार था कि थूपो के विकास के लिए लिपि की रचना बहुत आवश्यक है। इस तरह उन्होंने अपने दूत थुनमी सांगपूजा को भारत भेजा।"

वास्तव में राजा सोंगचान कानपू अपने शासन के शुरुआत में थूपो वंश के लिए लिपि रचने पर सोचते थे। उन्होंने क्रमशः कई दूतों को बड़ी मात्रा में मूल्यवान उपहार लिए दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया भेजे थे, ताकि वहां की लिपि सीखकर अपनी तिब्बती लिपि रची जा सके। लेकिन भेजे गए दूतों में कुछ लोग रास्ते में डाकुओं द्वारा मारे गए, कुछ लोग आदिम जंगलों में बाघ द्वारा शिकार बनाए गए, कुछ लोग अधिक गर्मी के कारण रोग से मर गये......बाकी बचे कुछ लोग वापस लौटे, लेकिन उन्होंने कोई चीज़ नहीं सीखी। थुनमी सांगपूजा राजा सांगचान कांपू के मंत्री थे। वे राजा के आदेशानुसार संस्कृत और भारतीय लिपि सीखने भारत गए। तिब्बत से भारत तक का रास्ता बहुत दूर था और रास्ते में यातायात भी नहीं था। बड़ी कठिनाईयों को दूर करके थुनमी सांगपूजा अंत में भारत पहुंचे । लेकिन भारत में उन्होंने भारतीय लोगों के बीच भाषा की बाधाओं को दूर करते हुए सात वर्षों तक भारत की भाषा सीखी। सात वर्ष बाद थुनमी सांगपूजा ने विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों को दूर कर भारत से ल्हासा वापस लौटे। वे फापांग खा स्थल पर तिब्बती लिपि रचने लगे।

फापांग खा मठ के भिक्षु पाईमा ने जानकारी देते हुए कहा:"1300 वर्ष पूर्व राजा सोंगचान कानपू ने महात्मा थुनमी सांगपूजा को संस्कृत सीखने भारत भेजा था। भारत से वापस लौटने के बाद वे लम्बे समय तक फापांग खा मठ में तिब्बती भाषा की लिपि रचते रहे। उन्होंने तिब्बती लिपि वाली पहली गुणगान-कविता लिखकर राजा सोंगचान कानपू को भेंट की।"

एक वर्ष के समय में थुनमी सांगपूजा ने संस्कृत की 50 लिपि के आधार पर बोलने की तिब्बती भाषा की विशेषता के साथ मिलाकर तिब्बती भाषा की 30 लिपियां रचीं। तभी राजा सोंगचान कानपू की इच्छा साकार हुई और तिब्बती लोगों के पास अपनी भाषा और लिपि संपूर्ण हो गयी। सोंगचान कानपू, थुनमी सांगपूजा को गुरू मानकर उनसे भाषा सीखने लगे।

बाद में फापांग खा महल मठ के रूप में बदल दिया गया, जिसमें थुनमी सांगपूजा की मूर्ति आज तक सुरक्षित रखी हुई है। यहां पर तिब्बती लोग कभी-कभार पूजा करने आते हैं। राजा सोंगचान कानपू ने थुनमी सांगपूजा द्वारा रची गई तिब्बती लिपि का ज़ोरदार प्रसार प्रचार किया, धीरे-धीरे तिब्बती जाति की परिपक्व लिपि व्यवस्था कायम हुई। थुनमी सांगपूजा का नाम भी व्यापक तिब्बती लोगों में लोकप्रिय हो गया।

तिब्बत स्वायत्त प्रदेश की राजधानी ल्हासा के पूर्व में 98 किलोमीटर दूर मोचू कोंगखा कांउटी के निमा च्यांगरे जिले के चोंगश्वे गांव में शालाखांग मठ स्थित है। मठ में थूपो वंश के समय के दो पत्थर सुरक्षित हैं ये थूपो वंश के समय के हैं और इनपर तिब्बती लिपि अंकित है। शोध के अनुसार पत्थरों में राजा सोंगचान कानपू की जीवन उपलब्धियां और मंत्री पानदीन्यांगपू आनचङ द्वारा देश के लिए किए गए योगदान अंकित हैं। ये पत्थर मंत्री थुनमी सांगपूजा के करीब 50 साल बाद सामने आया था। शालाखांग मठ के भिक्षु त्सेरन वांगतान के अनुसार विशेषज्ञों ने इन पत्थरों पर अंकित लिपि का अनुसंधान करने के वक्त पता लगाया कि यह लिपि दूसरी लिपि से अलग है। उन्होंने कहा:"पत्थरों पर अंकित लिपि के अनुसंधान से पता चला है कि उसके पहले टोन के लिखने का तरीका आज से अलग है। पहले दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी, लेकिन आज बाईं से दाईं ओर लिखी जाती है। दूसरा, पहले शिलालेख में कई द्विरुक्ति वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता था। लेकिन आज इसका प्रयोग कम ही किया जाता है और आम तौर पर बौद्धिक सूत्र में इस्तेमाल किए जाते थे।"

भिक्षु त्सेरन वांगतान ने जानकारी देते हुए कहा कि शिलालेख में अंकित लिपि का इतिहास आज से 1300 से अधिक वर्ष पुराना है। लिपि लिखने का तरीका आज से बहुत अलग था, जो प्राचीन समय में अधिक लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाती थी। शिलालेख की लिपि प्राचीन श्यांगशोंग काल में प्रचलित तिब्बती लिपि के आधार पर अंकित हुई। श्यांगशोंग देश राजा सोंगचान कानपू काल से कहीं पूर्व था, वह आज के तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के पश्चिमी भाग स्थित आली प्रिफेक्चर में था, जो कुछ तिब्बती कबाइली जनजातियों से गठित हुआ था। इस शिलालेख को देखने के बाद लोगों को आशंका हुई कि क्या थुनमी सांगपूजा ने प्राचीन श्यांगशोंग लिपि के आधार पर तिब्बती भाषा की लिपि रची थी, न कि संस्कृत के आधार पर?अगर यह विचार सही होता, तो तिब्बती जाति की लिपि के प्रयोग का इतिहास कहीं आगे होगा। वास्तव में लिपि के साथ-साथ सभ्यता पैदा होती है, इस तरह तो क्या तिब्बती जाति की सामाजिक सभ्यता का इतिहास भी कहीं ज्यादा पुराना होता ?इसकी चर्चा में तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के जातीय कला अनुसंधान केंद्र के अनुसंधानकर्ता चाला दावासांगपू ने कहा:

"वास्तव में तिब्बती जाति बहुत-बहुत प्राचीन समय में भाषा का प्रयोग करती थी, वह तो श्यांगशोंग लिपि थी। श्यांगशोंग लिपि का इतिहास करीब 3 हज़ार वर्ष पुराना है। लेकिन आज तिब्बती भाषा में प्रयोग की जाने वाली सभी लिपियां थुनमि सांगपूजा द्वारा रची गई थी, जिसका 1300 वर्ष पुराना इतिहास है। उन्होंने श्यांगशोंग भाषा की कुछ लिपियों और भारतीय भाषा की कुछ लिपियों को मिलाकर वर्तमान तिब्बती भाषा की लिपि रची थी। तिब्बती लिपि के अनुसंधान जगत में इस प्रकार के कथन की ज्यादा मान्यता प्राप्त हुई है।"

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