बहुत ज्यादा तिब्बती लोग अली प्रिफैक्चर को एक निषेधात्मक वीरान क्षेत्र मानते हैं। हाल ही में हमारे संवाददाता ने तिब्बत में तैनात सीमावर्ती रक्षा बलों के सैनिक डॉक्टरों से मुलाकात की, इशिछुंगचुंग उनमें से एक है। अली प्रिफैक्चर की चर्चा में उन्होंने कहा:"अली क्षेत्र उच्च ऊंचाई पर अवस्थित है, यहां का मौसम बहुत ठंडा है। जब हम यहां आये, तो स्थानीय लोगों ने हमें बताया कि इस क्षेत्र में पेड़ का नामोनिशान ही नहीं, स्थानीय तिब्बती लोग अली का नाम सुनते ही हैरान भी हो जाते हैं।"
सैनिक डाक्टर इशिछुंगचुंग तिब्बती जाति की हैं, 1997 में तिब्बत विश्वविद्यालय के चिकित्सा काँलेज से स्नातक होने के बाद सेना में भरती हुई, हालांकि उन्हें अली प्रिफैक्चर में आये हुए बहुत ज्यादा साल हो गये हैं, पर उन्हें हर बार अपनी जन्मभूमि लोका प्रिफैक्चर की चोम्मे कांउटी से अली लौटने पर फिर भी काफी बड़ी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। इस की चर्चा में इशछुंगचुंग ने कहा:"हर बार परिवारजनों से मिलने के बाद घर से अली वापस लौट आयी, तो कम से कम एक हफ्ते भर में बड़ी तकलीफ होती रही। पूरे हफ्ते में नींद नहीं आती।"
ऐसा होने पर भी उन्हें 14 साल पहले निश्चित अपने इस विकल्प पर कोई पछतावा नहीं हुआ , क्योंकि उस समय यहां पर तैनात सीमावर्ती बलों में तिब्बती भाषा जानने वाला कोई डाक्टर नहीं था, इसलिये उन्होंने यहां आने के बाद व्यापक स्थानीय तिब्बती वासियों को तैनात सैनिकों के साथ बहुत सहज से जोड़ दिया है, वे अपनी इस पुल की भूमिका पर बड़ी खुश हुई हैं। तिब्बती सैनिक डॉक्टर इशिछुंगचुंग का कहना है:"यहां पर हान जाति के डाक्टरों के लिये भाषा सब से बड़ी बाधा ही है, स्थानीय भाषा न आने के कारण वे इलाज में कुछ नहीं कर सकते। मेरे यहां आने के बाद उन के लिये तिब्बती सैनिकों व स्थानीय तिब्बती वासियों के साथ सम्पर्क करना आसान हो गया है, बिमारियों का इलाज करने में सुविधा भी हो गयी है, साथ ही बहुत ज्यादा स्थानीय समस्याएं भी आसानी से सुलझ गयी हैं।"
सैनिकों व स्थानीय तिब्बती वासियों की सुविधा के लिये इशिछुंगचुंग बड़ी खुशी के साथ विविधतापूर्ण दिक्कतें झेलती हैं। पिछले दसेक सालों में वे यहां पर तैनात सेना में तन मन धन से काम करती आयी हैं, हर साल छुट्टियों पर वे बस द्वारा चोम्मे से अली आ जाती है, जबकि सिर्फ ल्हासा से अली पहुंचने में तीन चार दिन लग जाते हैं, रास्ता दूर ही नहीं, बहुत खतरनाक भी है।
अक्तूबर 2010 के शुरु में अली से ल्हासा की ओर जाने वाला पक्का राजमार्ग निर्मित अभी अभी हुआ, तो इसी माह के मध्य में इशिछुंगचुन के पति अपनी पत्नी से मिलने ल्हासा से अली आ पहुंचे। इसकी चर्चा में उन्होंने कहा:"जब यह राजमार्ग यातायात के लिये खुल गया, तो वे तुरंत ही लोका से अली आ गये हैं। सर्दियों का मौसम है, कार के जमने के डर से उन्हें पूरी रात में कार चलानी पड़ी। वे यहां आकर मेरे काम करने वाला वातावरण देखना चाहते हैं।"
अब इशिछुंगचुंग अपने एक साल दस माह बड़े बच्चे पर सब से चिन्तित हैं, पर वे बच्चे की देखभाल के लिये अपनी सास की बड़ी आभारी हैं। वे बर्फीले पर्वत पर तैनात सैनिकों व अफसरों की सेवा के लिए अपने छै माह बड़े बच्चे को सास के पास छोड़कर अली वापस लौट आयीं। अब तक सास उन के बच्चे की देखभाल का सारा जिम्मा निभाती रहीं। हालांकि इस बात की चर्चा में इशिछुंगचुंग कुछ क्षमाशील महसूस हुई, पर उन्होंने फिर भी हमारे संवाददाता से कहा:"सेना में भरती होने के बाद सैनिकों के प्रति अपने मन में गहरी भावना संजोये हुए है, अपने विकल्प पर बड़ा गर्व है।"
तत्काल में इशिछुंगचुंग के साथ और तीन सहपार्ठी सेना में भरती हुए हैं, महिला के मद्देनजर इशिछुंगचुंग अन्य एक महिला सहपार्ठी के साथ अली प्रिफेक्चर के शिछ्वानहो कस्बे, जहां प्रशासनिक कार्यालय स्थित है, में भेजी गयी हैं, अन्य दो पुरुष चिकित्सक सीधे तौर पर सीमावर्ती रक्षा बलों में सैनिकों व अफसरों के इलाज के लिये भेजे गये हैं। पुरुष फौजी चिकित्सक होने के नाते चंग छुनइन 1994 में विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद लिनची प्रिफैक्चर में गये, तब से लेकर आज तक वे सीमावर्ती क्षेत्र में व्यापक सैनिकों, अफसरों और स्थानीय वासियों की सेवा में संलग्न हुए हैं। चंग छुनइन ने अपना अनुभव बताते हुए कहा:"सेना में भरती होने से पहले सुना था कि उच्च ऊंचाई पर रहने के कारण तिब्बत में आक्सिजन की कमी है, साथ ही समूचे देश में एक मात्र ऐसी मोथ्वो नामक कांऊटी रह गयी है, जहां की ओर जाने वाला कोई राजमार्ग नसीब न था।"
सेना में भरती होने से पहले चंगछुनइन तिब्बत के बारे में बस इतना जानते थे। पर क्या जाने नव सैनिकों के प्रशिक्षण के बाद उन्हें सीधे तौर पर मोथ्वो कांऊटी में ही भेजा गया। मोथ्वो कांऊटी का अर्धउष्णकटिबंधीय जलवायु है, हिन्द महा सागर से आने वाली गर्म व नम हवा से स्थानीय मौसम अत्यंत उमस होता है, और तो और राजमार्ग न होने से बाहर जाना भी बेहद मुश्किल है, सैनिकों को बाहर निकलने के लिये पैदल चलना पड़ता है। इसकी चर्चा में चंग छुनइन ने कहा:"वास्तव में उस समय मोथ्वो पहुंचने का कोई रास्ता नहीं था, स्थानीय लोगों ने जिस रास्ते को संज्ञा दी है, वह असल में मार्ग न होकर खाई ही है, लोगों को बाहर जाने के लिये पानी में चलना पड़ता है। पानी में ज्यादा समय तक चलने से पांवों पर छाले पड़ते हैं, यहां तक कि पांव नाखुन भी आसानी से गिर जाते हैं।"
चंग छुनइन ने हमारे संवाददाता से कहा कि मोथ्वो के स्थानीय वासियों में यह कहावत प्रचलित है कि मामली बीमारी अपने दम पर निर्भर है, जबकि गम्भीर बीमारी भगवान पर भरोसा है। यह कहावत बिलकुल अंधविश्वास नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बीमारी के इलाज के लिये मोथ्वो से बाहर जाना आसमान पर चढ़ने से कहीं अधिक भी कठिन है। डॉक्टर चंग छुनइन का कहना है:"क्योंकि कोई भी गम्भीर रोगी चलने में असमर्थ है, उसे बड़े अस्पताल ले जाने के लिये डोली उठाना पड़ता है, ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर हर कदम रखने में इतनी मुश्किल लगती है, जितनी आप कल्पना नहीं कर सकते, हम लम्बे समय से इसी तरह अपना जिम्मा निभाते रहे......"
इस का उल्लेख करते करते चंग छुनइन की आंखों में आंसू भर आये। उन की दृष्टि से फौजी छावनी के क्लीनिक का चिकित्सा स्तर मोथ्वो कांऊटी में सब से बढ़िया माना जाता है। उन्होंने कहा:"मोथ्वो में डांक्टर होने के नाते हमें लाइलाज बीमारी व नाजुक गम्भीर बीमारी से सब से डर है, क्योंकि ऐसी बीमारी के इलाज में हम असक्षम हैं। पर सौभाग्य की बात है कि यहां आने के बाद हमारे क्लीनिक में मेरे रोगियों में किसी सैनिक या स्थानीय व्यक्ति की मृत्यु नहीं हुई।"
लम्बे समय में नम व उमस पहा़ड़ी घाटी में रहने और इलाज के लिये पैदल चलने से चुंगछुनइन को गम्भीर गठिया से लगा और दो बार आपरेशन भी हुआ। गम्भीर रोगी के मद्देनजर 2006 में वे आदेश पाकर मोथ्वो को छोड़कर दूसरी सीमावर्ती सैनिक छानवी में स्थानांतरित हुए।
खैर, उक्त दोनों सफेद वर्दी वाले दूतों में एक बर्फीले पर्वत की चोटी पर हैं, अन्य एक घने पहाड़ी जंगलों में हैं और उन का लिंग भी भिन्न है, पर सैनिकों व स्थानीय वासियों के प्रति उन के मन में गहरी प्रेम भावना संजोये हुए है और उन्होंने विशेष सफेद वर्दी वाले दूतों की हैसियत से चुपचाप से चीन के सीमावर्ती क्षेत्रों के अमन चैन के लिये विशेष योगदान किया है।