प्रोफेसर जवरीमल पारख
इगनों में कार्यरत प्रोफेसर व प्रसिद्ध आलोचक
भारत में सन 80 में शुरू हुए उदारवाद का समाज पर प्रभाव और हिन्दी फिल्मों में उसकी झलक। सन 80 के बाद भारत में उदारवाद की जो प्रक्रिया शुरू हुई उससे एक ऐसी मध्यवर्ग की पीढ़ी का जन्म हुआ जो अपने से पहले की पीढ़ी से भिन्न थी। इस नई पीढ़ी के सामने कुछ कर दिखाने का जज्बा अभूतपूर्ण था। बाजार, उदारवाद और वैश्विकरण ने उन के सामने अपने सपनों को साकार करने के न केवल मौके मुहैय्या कराए बल्कि उन में इन मौकों से लाभ उठा कर कुछ करने का हौंसला भी पैदा किया। उससे पहले रसूख वाले ,पैसे वाले, या सत्ता में पहुंच रखने वाले ही जीवन में आगे बढ़ सकते हैं, यह सोच और धारणा आम लोगों में व्याप्त थी। जिस की अभिव्यक्ति हिंदी फिल्मी दुनिया में भी दिखाई पड़ती थी, जहां सफल होने के लिये आम तौर पर या तो माई बाप का होना जरूरी समझा जाता था, या फिल्मी परिवार का सदस्य होना जरूरी था। ऐसे उदाहरण जनता के सामने कम ही थे जिन में बाहर का कोई गैर फिल्मी व्यक्ति फिल्मी दुनिया में आए और राज करने लगे। अमिताभ बच्चन एक ऐसे उदाहरण थे लेकिन उन्हें फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमाने काफी लंबा अरसा लगा। और वह समय लाईसेंस राज का था, इसलिये मध्यवर्ग के युवा लोगों को उन से सिस्टम के खिलाफ गुस्सा अभिव्यक्त करने का साहस तो मिला लेकिन सिस्टम को दरकिनार रख अपने सपनों को पूरा करने वाली बाह्म स्थितियां अभी नहीं पैदा हुई थीं। यह हुआ सन 80 के बाद के दौर में भारत की दिल्ली से एक आम नैन नक्श वाले एक युवक ने हिंदी फिल्मी दुनिया में प्रवेश किया, जिस का वहां कोई माई बाप नहीं था, संपर्क नहीं थे, पैसा नहीं था, और सत्ता के गलियारों में कोई पहुंच नहीं थी। और यह युवक अपने सपनों को पूरा करने का हौंसला ले कर वहां पहुंचा और देखते ही देखते उसने लोगों के दिलों पर राद करना शुरू कर दिया। यह युवक था शाह रुख खान। शाह रुख खान, में वह सब कुछ है जो एक आम युवा के पास है। एक आम जिंदगी और सपने। इसलिये आज शाह रुख खान युवा वर्ग में इतना लोकप्रिय है। शाह रुख खान के इस सफर पर हम ने दिल्ली में प्रोफेसर जवरीमल पारख से बात की जो मीडिया विशेषज्ञ और जाने माने विद्वान है।