प्रोफेसर अहमत रज़ा खान
इतिहास के प्रोफेसर तरक्की पसंद चिंतक और अंबेदकर विश्वविद्यालय के डीन
दक्षिण एशिया के कई देशों में सांप्रदायिक समस्या का इतिहास दशकों पुराना है। लेकिन यह भी सच है कि सदियों से यह विभिन्न जातियों, धर्मों के लोग साथ-साथ रहते आए हैं, उनके सहयोग ने कला, संस्कृति के विकास में अनुतपूर्व योगदान दिया है। भारत में सर्वधर्म समभाव और वसुधैव कुटुंबकम की धारणा सदियों से विद्यमान रही है। अनेक जातियों,धरमों के लोग यहां आए और यहीं के हो कर रहे गए। उन सब के मिले-जुले योगदान से एक ऐसी साझी संस्कृति और सभ्यता का विकास यहां हुआ जिसने विश्व के सामने एक साथ मिलजुल कर रहने का आदर्श भी पेश किया। लेकिन यह सब अब पुरानी बातें लगती हैं, एक ऐसे इतिहास की जो केवल किताबों में कैद है, या सांस्कृतिक विरासत में, संगीत में, कलाकृतियों में या मनुष्य की सामूहिक स्मृति में।
आज का सच थोड़ा कड़वा है। आम आदमी को बार-बार यह मानने पर मजबूर किया जाता है कि जो आदमी उस के घर के बाजू में रहता है जो उसी की तरह अपना परिवार पालने की मेहनत मशक्कत कर के जी तोड़ कोशिश में लगा है, वह उससे अलग है, उस का धर्म उससे अलग है, उसकी जाति अलग है। औक इसलिये उससे उसके वजूद को खतरा है।
क्या कारण हैं कि दशकों के बाद भी जब दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है,धर्म व जाति की यह बोगी अभी भी कुछ लोगों को मनुष्य से बांट कर अलग करने में सफल हो रही है। इस बारे में हम ने भारत में दिल्ली में इतिहास के प्रोफेसर तरक्की पसंद चिंतक और वर्तमान में अंबेदकर विश्वविद्यालय में डीन के पद पर कार्यरत अहमत रज़ा खान से बात की।