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तिब्बत में चायपान की प्रथा
2010-11-30 14:13:33
चीन चाय का जन्म देश है। चीन में चाय संस्कृति का इतिहास लम्बा पुराना और विविध विषयक है। तिब्बती जाति के जीवन में चाय का अहम स्थान है। तिब्बत में यह कहावत चलता है कि हान जाति का पेट चावल से भरा रहता है और तिब्बती जाति का पेट चाय से। इस से जाहिर है कि चाय तिब्बत में कितना महत्वपूर्ण है।

तिब्बती जाति समुद्री सतह से 3500 मीटर से ज्यादा ऊंचे स्थान पर रहती है। पहले वहां चाय का उत्पादन नहीं था। आज से 1300 साल पहले थुबो राजवंश के काल में चाय थांग राजवंश से तिब्बत में आया।

चायपान की प्रथा चलने का तिब्बती बौद्ध धर्म के विकास से संबंध था। थांग राजवंश की राजकुमारी वनछङ के तिब्बत में राजा के साथ विवाह करने आने के साथ साथ बौद्ध धर्म तिब्बत में आया और धीरे धीरे फैल गया । मध्य चीन के भिक्षु ध्यानासन लगाने के दौरान चाय पीते थे और चाय पीने से भिक्षु का ध्यान बरकरार रह सकता था और मनोबल बढ़ जाता था। तिब्बती बौद्ध धर्म के भिक्षु ने भी चाय की यह क्षमता मानी और चायपान की प्रथा तिब्बती बौद्ध धर्म के मठों में चल गयी। भिक्षुओं से चाय पान की प्रथा आम लोगों में फैल गयी थी।

मध्य चीन और तिब्बत के बीच आवाजाही और आदान प्रदान लगातार बढ़ने के परिणामस्वरूप चायपान तिब्बत में और अधिक लोकप्रिय हो गया और अधिक मात्रा में चाय भी तिब्बत में आने लगा। थांग राजवंश के काल में चाय व्यापार मेला भी कायम हुआ, जिस के जरिए चाय बड़ी मात्रा में तिब्बत में पहुंचाया गया। खास कर 13 वीं शताब्दी में तिब्बत औपचारिक रूप से चीन का एक प्रशासनिक क्षेत्र बनने के बाद तिब्बती लोगों में चायपान के लिए विश्वसनीय भौतिक गारंटी भी मिल गयी।

चीन के भीतरी इलाके की चाय संस्कृति को तिब्बत में राजघरानों, मठ मंदिरों और आम लोगों में फैलने और हजार साल तक विकसित होने के बाद अंत में विशेष तिब्बती शैली के चायपान की प्रथा संपन्न हो गयी। मांस और तिब्बती जौ के चांपा को मुख्य आहार के रूप में खाने वाली तिब्बती जाति के लिए चायपान स्वास्थ्य लाभ देता है। चायपान से चर्बी घटायी जाती है और पाचनशक्ति बढ़ायी जाती है। चायपान से लोग एक सुखद मानसिक हालत में पहुंच जाते हैं। इसलिए तिब्बत में चाय को स्वर्ग से मिला अमृत माना जाता है।

तिब्बती जाति में चाय का पान करने के विरल तरीके है। मसलन्, चीन के अन्य क्षेत्रों में उबले पानी में चाय डालने के बाद पीया जाता है, जबकि तिब्बती बहुल क्षेत्रों में आग से चाय पानी में उबाला जाता है, जब चाय का रंग सांवला बन गया, तभी पीता है, चाय में थोड़ा सा नमक भी मिलाया जाता है। तिब्बत में यह कहावत है कि चाय में नमक नहीं है, तो पानी की तरह नीरस रही है। चाय में गाय या बकरी का दुध भी मिलाया जा सकता है, जो दुधिया चाय के रूप में चरवाहों और किसानों में ज्यादा लोकप्रिय है।

तिब्बती जाति में चाय पान के बाद जो पत्ते रह गए है, उसे बच्चों को खिलाया जाने की प्रथा भी है। कहा जाता है कि चायपान के बाद रह गए पत्ते पोषकता देता है। वर्तमान के तिब्बत के उत्तर पूर्व भाग और छिंगहाई व सछ्वान प्रांतों के तिब्बती बहुल क्षेत्रों में चाय के पत्तों को शोरबा के साथ खाने की प्रथा भी है, जिसे चांपा चाय कहलाता है। चांपा चाय बनाने में चाय के पत्तों को बारीक कर्ण में पीस कर बनाया जाता है और कर्णों को पानी में उबाला जाता है और उस में कुछ चांपा और नमक मिलाया जाता है। चापा चाय ऊर्जा प्रदान करता है।

तिब्बती जाति में घी-चाय सब से श्रेष्ठ माना जाता है। कहते हैं कि यदि घी-चाय नहीं पीया, तो तिब्बत की यात्रा नहीं माना जाता। घी का चाय बनाने में पहले शुद्ध चाय का पानी बाल्टी में डाला जाता है, फिर घी, नमक, अंडा और अखरोट के गुठली मिलाया जाता है। घी-चाय सुगंधित, मुलायम और प्यास को बुझाता है। तिब्बती लोगों में वह बहुत ही पसंद है।

उल्लेखनीय बात यह है कि उपरोक्त चाय बनाने और पीने के तरीके और प्रथाएं 1000 साल पहले मध्य चीन के विभिन्न स्थानों में प्रचलित रहे थे। लेकिन युन राजवंश के बाद ये प्रथाएं केवल चीन के कुछ अल्पसंख्यक जाति बहुल क्षेत्रों में बरकरार रही हैं। किन्तु सांस्कृतिक समागम के बाद तिब्बती जाति में प्रचलित चाय पान के ये तरीके भी प्राचीन चीनी चायपान परंपरा से विकसित हो कर अपनी विशेष पहचान वाली हो गयी है।

तिब्बत के गांवों और चरगाहों में अवकाश समय लोग अग्नि कुंडे के पास बैठे चाय पीते हुए गपशप मारते अकसर दिखाई देते हैं। चरगाहों में जब मवेशी घास चर रहा है, तो चरवाहे साथ लाए छोटे कड़ाहे को निकाल कर तीन पत्थरों पर रख देता और आग जला कर आराम से चाय बनाता है और बाहर जाने वाले लोग भी आराम के समय कड़ाही लगा कर चाय बनाते हैं।

चाय भिक्षुओं के जीवन का एक अभिन्न भाग बन गया है। चायपान ताजदगी और ध्यानाकर्षण बल प्रदान करता है। मठों में रोजाना तीन बार सामुहिक चायपान होता है, यानी सुबह, दोपहर और शाम सूत्र पाठ के बाद किया जाता है। आम तौर पर भिक्षुओं को घी का चाय मुहैया किया जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुसार भिक्षु निर्धारित पाठ पूरा करने के बाद एक अवधि में स्वःतपस्या करते हैं, इस अवधि में चाय का कड़ाही, थैली का चानपा, चाय के पत्ते और घी उन के जीवन संसाधन ही है।

तिब्बती जाति में चायपान की रस्म भी नियमबद्ध है। रोजाना चायपान के समय बड़े और छोटे और मेहमान व मेजबान का क्रम सम्मानित है। घर में चायपान पहले माता पिता और पूर्वजों को भेंट किया जाता है। मेहमान को आदर जताने के लिए मेजबान उस के मुख के सामने बर्तन को साफ पानी से धोता है और साफ करने के बाद चाय डाल कर भेंट देता है। मेजबान तब तक चाय देता रहा, तबतक मेहमान ने प्याले पर हाथ रखकर काफी होने का संकेत नहीं देता। रिश्तेदार, मित्र और पड़ोसी के बीमार पड़ने या यात्रा करने के समय लोग गर्म गर्म घी-चाय पिलाते हैं।

तिब्बती जाति में शादी ब्याह और मृतक के अंतिम संस्कार के वक्त चाय पान होता है। सगाई के समय दहेज में शामिल चाय की मात्रा बहु पक्ष की संपत्ति का प्रतीक है और शादी के भोजन में चायपान लाजिमी है।

चाय में लगाव होने के कारण तिब्बती जाति में चाय के बारे में बेशुमार साहित्यिक रचनाएं और लोक कथाएं अस्तित्व में आयीं, जिन में चाय मदिरा परी और चाय व नमक की कहानी आदि मशहूर हैं। चाय मदिरा परी में एक नगर की कल्पना की गयी थी, जिस के अनुसार राजा ने मदिरा की जगह चाय की दावत दी, इस से नाखुश हो कर मदिरा देवी स्वर्ग से नीचे आयी और राजा के सामने मदिरा की तारीफ का पुल बांधती और चाय पर कलंक लगाती थी। चाय परी भी आयी और मदिरा परी के साथ वादप्रतिवाद करने लगी और मदिरा की बुराइयां गिन गिन कर उस की खरी बुरी ले ली और चाय के योगदान की प्रशंसा की। दोनों परियों में झकड़ा हुआ। अंत में राजा ने बीचबचाव किया और उचित रूप से चाय और मदिरा की काम क्षमता बतायी। चाय और नमक की कहानी में प्रेमी और प्रेमिका की एक जोड़ी की कहानी थी। दोनों जीवन काल में पति पत्नी नहीं बन सके, मृत्यु के बाद दोनों नमक और चाय के रूप में पुनर्जन्म हुआ, क्योंकि तिब्बती लोग चाय में नमक मिला कर पीते हैं, इसतरह दोनों प्रेमी और प्रेमिका रोज एक साथ रहते हैं। इस लोक कथा में तिब्बती जाति में नमक मिश्रित चाय पीने की प्रथा रोमांटिक कहानी के रूप में वर्णित हुई है।

तिब्बती जाति में यह मान्यता भी है कि चाय मवेशियों को शक्ति प्रदान कर सकती है। तिब्बती किसान और चरवाहे अकसर चाय के कचरे गाय और घोड़े को खिलाते हैं।

1000 साल पहले चाय तिब्बत में आया, कालांतर में विशेषता वाली तिब्बती चाय संस्कृति उत्पन्न हुई। जाहिर है कि चाय तिब्बती जाति का अपरिहार्य पेयजय ही नहीं है, बल्कि सदियों के इतिहास में तिब्बती जाति और हान जाति व अन्य अल्पसंख्यक जातियों के भौतिक व सांस्कृतिक आदान प्रदान की अहम कड़ी भी है।

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