थांग राजवंश का वरिष्ठ तिब्बती सेनानायक गा.लोन गोंगरन
आठवीं शताब्दी के शुरू में चीन के थांग राजवंश के दरबार मे तिब्बत जाति का एक उच्च स्तरीय सेनानायक था, जिस का नाम गा.लोन गोंगरन। लोन गोंगरन का जन्म तत्कालीन तिब्बत क्षेत्र की थुबो सत्ता के तहत गा नामक खानदान में हुआ था। उस का पितामह सोंगत्सान गोम्बो के मंत्री रह चुके थे। उस का पिता थुबो राज्य में सेनानायक के पद पर रह चुके थे । लोन गोंगरन के काल में थुबो में वर्षों से युद्ध हुआ करता था, उस ने पिता के साथ युद्ध में भाग लिया और कारनामा भी कर दिखाया। उस के घराना ने कभी थुबो सत्ता का बागडोर भी संभाला था। थुबो के शासक सत्ता के दूसरों के हाथ में पड़ने से संतुष्ट नहीं हुए, उन्हों ने लोन गोंगरन के पिता आदि लोगों को हटाने के लिए युद्ध छेड़ा, कई सालों के संघर्ष के बाद लोन गोंगरन के पिता ने हार खाकर जान गंवायी।
सन् 699, लोन गोंगरन हजारों लोगों को लेकर थांग राजवंश में जा मिले। थांग दरबार उन्हें आदरनीय मेहमान समझता था, और उस ने गोंगरन को आनक्वो राजकुमार की उपाधि प्रदान की और उसे अहम पद पर नियुक्त किया । गोंगरन भी लम्बे समय तक वफादारी के साथ थांग राजवंश की सेवा करता रहा । थांग राजवंश और थुबो के बीच हुए युद्ध के दौरान उस ने थुबो सेना के हजारों सिपाहियों को समझा कर हथियार डलवाने का काम किया, जिस से थांग और थुबो के बीच खूनी युद्ध टल गया ।
उपरांत, चीन के उत्तरी भाग में तुर्क कबीला की सेना ने थांग राजवंश के खिलाफ विद्रोह किया, थांग दरबार ने लोन गोंगरन को सेना लेकर विद्रोह को शांत करने भेजा। गोंगरन ने इस मुहिम में शानदारि विजय पायी, जिस के कारण कुछ ही वर्षों में उस की अनेक पदोन्नति हुई । ऐतिहासिक उल्लेख के अनुसार गोंगरन सेना संचालन में निपुण था और उस की सेना अनुशासित और एकताबद्ध थी । लोन गोंगरन ने थांग राजवंश के कुल चार सम्राटों को सेवा दी थी, अनेक बार सेना का नेतृत्व कर तुर्क कबीलों पर फतह पायी , उस के कारनामे उल्लेखनीय थे और थांग राजवंश में बेहद नामी था । उस ने मध्य चीन की शांति के लिए असाधारण योगदान दिया था और थांग राजवंश की शोभा बढ़ायी थी।
सन् 723, 60 वर्षीय लोन गोंगरन का बीमारी के कारण देहांत हो गया। उस के निधन के बाद थांग राजवंश ने उसे पाछ्वान उपाधि प्रदान कर भव्य शोक सभा बुलायी , उस की समाधि राजधानी सीआन के दक्षिण उपनगर में बनायी गयी और थांग राजवंश का इतिहास नामक पुस्तक में उस की जीवनी कलमबद्ध की गयी । उस की संतानों को भी सरकारी पदों पर नियुक्त किया गया और उन के साथ उदार व्यवहार किया गया। लोन गोंगरन ने मध्य चीन में 24 सालों तक जीवन बिताया ,वह चीन के भीतरी इलाके में सर्वप्रथम उच्च सेनानायक बनने वाला तिब्बती लोग था।
युन राजवंश का राजनीतिज्ञ सांगगे
चीन के इतिहास में केन्द्रीय राजवंश में प्रधान मंत्री का पद संभालने वाला तिब्बती अधिकारी सांगगे था। सांगगे का जन्म वर्तमान तिब्बत के छांगतु इलाके में हुआ था। बालावस्था में वह होशियार और अध्ययनशील था, उस ने तिब्बती, मंगोलियाई और हान भाषा सीखी । सन् 1265, सांगगे वीचांग ( वर्तमान तिब्बत स्वायत्त प्रदेश) का अनुवादक अफसर बना।
सांगगे अनेक बार चीन के युन राजवंश के सम्राट के पास काम करने भेजा गया था। वह युन राजवंश के प्रथम सम्राट खुबेले खान को बहुत पसंद आया। उसे केन्द्रीय दरबार में पद संभालने के लिए बुलाया गया। सांगगे युन दरबार में श्रेष्ठ सेवा करता था और अनेक पदों पर नियुक्त किया गया था । अंत में वह पदोन्नति कर थुबो मामला देखने वाला वरिष्ठ अधिकारी नियुक्त किया गया। 1277 में सांगगे ने सेना लेकर वीचांग इलाके के भीतरी उपद्रव को शांत कर दिया और वहां के रक्षा कार्य को मजबूत किया और सरकारी यात्री सरायों का नया इंतजाम किया ,जिससे तिब्बत में युन राजवंश का शासन सुदृढ़ कर दिया गया।
युन राजवंश की राजधानी लौटने के बाद सांगगे ने देश की खराब वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए अनेक अच्छे सुझाव पेश किये और बड़ी मात्रा में सरकारी संस्थाओं के वित्तीय घाटे का पता लगाया । परिणामस्वरूप वह खुबेले खान का विश्वसनीय पात्र बन गया। सन् 1287, सांगगे राजवंश के प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त हुआ। चीन के इतिहास में केन्द्रीय सरकार में प्रधान मंत्री बनने का प्रथम तिब्बती शख्स हो गया ।
प्रधान मंत्री का पद संभालने के बाद सांगगे ने लगन से काम किया और बड़े पैमाने पर दुष्ट अधिकारियों का निकालकर श्रेष्ठ अधिकारियों को नियुक्त किया , वित्तीय मामले का ठीकठाक किया और आर्थिक पुनरूत्थान किया । लेकिन सांगगे के सिलसिलेवार प्रयासों से तत्काल के ऊपरी तबके के मंगोल कुलीन अधिकारियों के हितों को क्षति पहुंची, उन्हें सांगगे से बड़ी नफरत हुई और उस पर अभियोग लगाया गया और प्रधान मंत्री का पद संभालने के चार साल बाद उसे पद से हटा कर जेल में डाला गया और वहीं जेल में उस की मौत हुई।
सांगगे तिब्बती जाति के बुद्धिमान और कार्यकुशल अधिकारी था, वह साधारण अनुवादक से उन्नति कर प्रधान मंत्री की कुर्सी पर बैठ गया और तत्कालीन केन्द्रीय राजवंश के दरबार में शक्तिशाली हस्ती बन गया, जिस ने तिब्बत पर केन्द्रीय सरकार के शासन को मजबूत करने में असाधारण योगदान किया।
धार्मिक सुधारक त्सोंगखापा
14वीं शताब्दी के मध्य में तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदायों में सत्ता के लिए छीनाझपटा हुआ करता था। जिस से धार्मिक शैलियों को बरबाद किया गया। ऊपरी तबके के धार्मिक व्यक्तियों को बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त हुए, उन के पास अनगिनत संपत्ति इकट्ठी हुई और भोग विलास के जीवन में लिप्त हुए। यह हालत बौद्ध धर्म के नियमों का बुरी तरह उल्लंघन हुआ थी ।
तत्काल, तिब्बती बौद्ध धर्म के आचार्य त्सोंगखापा ने जगह जगह जाकर सूत्रों की व्याखा किये और शिष्य को बना कर धार्मिक सुधार का सुझाव पेश किया। सोंगखापा का जन्म वर्ष 1357 में छिंगहाई प्रांत की चुंगह्वांग कांऊटी में हुआ था। बालावस्था में वह भिक्षु बना, 16 साल की उम्र में वह तिब्बत जाकर शिक्षा ले ली और विभिन्न धर्माचार्यों से सीखा और 20 सालों तक गहन अध्ययन किया। उस ने विभिन्न संप्रदायों की खुबियों का विवेचन किया और अनेक रचनाएं लिखी और ऊंचा नाम कमाया ।
धार्मिक पुनरूत्थान के लिए सोंगखापा ने तिब्बत के विभिन्न स्थानों में बौद्ध सूत्रों की व्याख्या करते हुए भिक्षुओं से कड़ाई से शील नियमों का पालन करने तथा अधिकार व धन दौलत के पीछे ना दौड़ने की मांग की और उस ने सांसारिक मामलों में दखल नहीं करने का भी प्रस्ताव पेश किया तथा भिक्षुओं को सूत्रों पर अध्ययन के लिए क्रामिक प्रगति पाने के सुझाव पेश किया ।
सन् 1409 सोंगखापा ने ल्हासा में एक बड़ा धार्मिक अनुष्ठान बुलाया , उस के उपरांत, अब तक हर साल ल्हासा में ऐसा अनुष्ठान आयोजित होता आया है। उसी साल, सोंगखापा ने ल्हासा में गानडेन मठ का निर्माण किया और गलुगे संप्रदाय कायम किया, गानडेन मठ संप्रदाय का मुख्य मठ बन गया , इस के बाद क्रमशः ड्रेपुंग मठ, सेरा मठ, ताशिलुंबो मठ और कुम्बुम मठ स्थापित किए। ये पांच मठ गलुगे त्सोंगखापा के धार्मिक सुधार के विचारों का प्रचार करने वाले स्थल हो गए।
तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदायों में गलुगे संप्रदाय की स्थापना देर से हुई थी , लेकिन त्सोंगखापा के धार्मिक सुधार के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा और आह्वान शक्ति बहाल हुई। उसे व्यापक भिक्षुओं से समर्थन मिला। उस के विचार शासक वर्ग की जरूरतों के अनुरूप थे , इसलिए शासक वर्ग का समर्थन भी मिला। इस तरह गलुगे संप्रदाय बढकर तिब्बती बौद्ध धर्म का सब से बड़ा संप्रदाय बन गया । तिब्बत के इतिहास में त्सोंगखापा व गलुगे की बड़ी प्रशंसा की गयी।
1419 में धर्माचार्य त्सोंगखापा का निधन हुआ, उस के कार्य को उस के शिष्यों ने आगे बढ़ाया. तिब्बत के अनेकों मठों में त्सोंगखापा की प्रतिमा बिठायी गयी है। उस के निधन दिवस को भी धार्मिक त्यौहार—दीपक पर्व का रूप दिया गया। तिब्बती पंचाग के अनुसार हर साल दसवें माह की 25 तारीख की रात लोग दीप जला कर खिड़की या पैड पर रख कर त्सोंगखापा की समृति याद करते हैं।