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जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा
2009-10-20 14:28:55

तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के लोका प्रिफैक्चर को तिब्बती जाति की संस्कृति का उद्गम स्थल माना जाता है , जहां बड़े सुन्दर प्राकृतिक दृश्य और गहरी प्रचुर संस्कृति है ।

लोका प्रिफैक्चर की लोका कांउटी में एक जाशी चोर्टन नामक एक छोटा सा गांव है, जहां जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा प्रचलित है । जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा की एक शाखा है, जिसे पीले मुखौटे वाला तिब्बती ओपेरा भी कहा जाता है। इस प्रकार का ओपेरा तिब्बती ओपेरा में प्रभावशाली है और इस का कलात्मक विकास भी संपूर्ण है, जिसे चीनी गैर भोतिक सांस्कृतिक अवशेष की नामसूचि में शामिल किया गया है। कहा जाता है कि तिब्बती ओपेरा के संस्थापक आचार्य थांतुंग चेहपू लोका प्रिफैक्चर की नाइतुंग कांउटी स्थित जासी चोर्टन गांव आए, और इसे एक शुभ स्थल माना । उन्होंने इसे जाशी गांव नाम दिया और आसपास जाकर तिब्बती ओपेरा अभिनय की सुविधा के लिए वहां एक पुल बनाया । बाद में इस प्रकार के अभिनय को जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा कहा गया, इसे तिब्बती ओपेरा का स्रोत भी माना जाता है । थांगतुंग चेहपू तिब्बती ओपेरा के संस्थापक माने जाते हैं, वह तिब्बत में पुल बनाने वाले प्रथम व्यक्ति भी हैं । कहते हैं कि थांगतुंग चेहपू ने तिब्बत की विशाल भूमि में लोगों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान की सुविधा के लिए काफी पुल बनाए व मार्गों का निर्माण किया । उन्होंने तत्कालीन तिब्बत में मौजूद जातीय नाच-गान, कथा वाचन और कलाबाज़ी आदि को मिला कर एक किस्म का ओपेरा रचा, जिसे अभिनेता भेड़ के चमड़े वाला मुखौटा पहनकर प्रस्तुत करते हैं । थांगतुंग चेहपू विभिन्न जगह जाकर इस प्रकार के ओपेरा की प्रस्तुति के जरिए राशि जुटाते थे और पुल व मार्गों का निर्माण करते थे। बाद में जाशी गांववासियों ने थांगतुंग चेहपू के इस प्रकार के ओपेरा के विकास का जिम्मा उठाया । उन की नज़र में यह तिब्बती ओपेरा की जड़ है और देवगीत भी है । इस तरह उन्हें इस प्रकार का ओपेरा बहुत मूल्यवान लगता है । जाशी गांववासी बाइमा तुनचु जासी शोबा तिब्बती ओपेरा के उत्तराधिकारियों में से एक हैं । 87 वर्ष की उम्र में वे हर दिन गांव के तिब्बती ओपेरा अभिनय मंडली का अभ्यास देखने जाते हैं और उन्हें गाने व अभिनय के अपने अनुभव बताते हैं । बाइमा तुनचू ने याद करते हुए कहा कि शुरू में जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा गाते वक्त अभिनेताओं की आवाज़ बहुत विशेष होती थी, जिसे निकालना बहुत मुश्किल था, और वह सुनने में भी मधुर नहीं लगती थी । लेकिन शुभ चिन्ह के रूप में चाहे प्राचीन समय में हो या आज, जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा का विशेष स्थान है, जिस का स्थान अन्य किस्म वाले तिब्बती ओपेरा नहीं ले सकते। इस की चर्चा में बुढ़े बाइमा तुनचू ने कहा:

"नौ वर्ष की उम्र में मैं ने जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा सीखना शुरू किया था । उस समय अध्यापकों ने तिब्बती ओपेरा से जुड़ी अनेक दलीलें पढ़ी, जिन में तिब्बती ओपेरा के प्रकार, उन में फर्क आदि शामिल थे। लेकिन मुझे कम याद है । मुझे याद है कि तत्काल में हमारी जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा मंडली को तिब्बत के विभिन्न बड़े या छोटे मठों और कुलीनों के घर जाकर अभिनय करना पड़ना था ।" गहरे अध्ययन के बाद तिब्बती ओपेरा के प्रति बाइमा तुनचू का प्यार और बढ़ा । 25 वर्ष की उम्र में वे जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा से संबंधित कड़ी परीक्षा पास कर इस प्रकार के तिब्बती ओपेरा की सातवीं पीढ़ी के अध्यापक बन गए । पुराने तिब्बत में मठों में धार्मिक गतिविधियों के आयोजन के समय, सरकारी अधिकारियों और कुलीन लोगों के समारोहों तथा नव वर्ष आदि उत्सवों में जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा का अभिनय अपरिहार्य होता था । लोगों की नज़र में जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा मात्र अभिनय नहीं है, वह शुभ चिन्ह भी है। इसलिए जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा की संपूर्ण कलात्मक व्यवस्था और कड़ी परीक्षा होती है । जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा के अध्यापक बनने वाली अपनी परीक्षा की चर्चा में बाइमा तुनचू की आंखे आज भी उत्साह से चमकने लगती हैं । उन्होंने कहा:

"उस समय हम अभिनय के लिए पोटाला महल जाते थे, ल्हासा के लगभग सभी अधिकारी व कुलीन लोग वहां थे । उन्होंने मेरी अध्यापक बनने की परीक्षा ली । परीक्षा बड़ी मुश्किल थी । अभिनय की तकनीक और विभिन्न प्रकार के नाटकों के विषय.. एक भी गलती नहीं करनी थी । परीक्षा दो दिन के बाद पूरी हुई ।" वर्ष 1959 में तिब्बत में जनवादी सुधार किए जाने के बाद विशेष कर सुधार व खुले द्वार की नीति लागू की जाने के बाद देश अल्पसंख्यक जातीय सांस्कृतिक विरासतों के संरक्षण व विकास पर बड़ा महत्व देता आया है, और अल्पसंख्यक जातीय क्षेत्रों में विशेष संस्थाओं को स्थापित कर जातीय सांस्कृतिक अवशेषों, विशेष कर लुप्त होने वाले जातीय सांस्कृतिक विरासतों का समय पर खोज कर संरक्षण किया गया , जिस से इन सांस्कृतिक अवशेषों के आगे के विकास के लिए कठोर नींव डाली गई । तिब्बत स्वायत्त प्रदेश के लोका प्रिफैक्चर के जातीय सांस्कृतिक अवशेष बचाव कार्यालय के प्रधान श्री रग्यात्सो ने संवाददाता से कहा कि लोका प्रिफैक्चर का जातीय संस्कृति संरक्षण कार्य बहुत पूर्व से आयोजित किया जा रहा है । उन का कहना है:

"देश में गैर भौतिक सांस्कृतिक संस्कृति का बचाव व संरक्षण कार्य वर्ष 2005 से ही शुरू हो गया था, लेकिन हमारे यहां वर्ष 1985 से ही जातीय सांस्कृतिक अवशेषों का संरक्षण कार्य शुरू किया गया ।" सूत्रों के अनुसार बीते 20 से ज्यादा वर्षों में लोका प्रिफैक्चर ने बड़ी तादाद में मूल्यवान सांस्कृतिक सामग्री पायी है, जिस में 800 से अधिक लोक कथाएं, 18000 से ज्यादा लोक गीत शामिल हैं । इस के साथ ही लोका प्रिफैक्चर ने विभिन्न प्रकार के लोक गीत व लोक नृत्यों से जुड़े 160 से ज्यादा वीडियो डिस्क बनायीं, और 5 सो से अधिक लोक संगीत कैसेट जारी किए । उक्त कदमों से"छांगक्वो चोवू नृत्य"और"जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा"आदि प्राचीन तिब्बती लोक कला सुचारू रूप से देश के प्रथम खेप की गैर भौतिक सांस्कृतिक विरासतों की नामसूची में शामिल की गयी, और अब उन में नई जीवन शक्ति पैदा हुई है। जातीय सांस्कृतिक बचाव कार्य के एक भाग के रूप में लोका प्रिफैक्चर ने वर्ष 1986 में विशेष तौर पर जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा बचाव कक्षा खोली, सरकार ने विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए बाइमा तुनचू को आमंत्रित किया, यह जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा के आगे विकास के लिए भी लाभदायक था, आजकल उस का सामाजिक प्रभाव और व्यापक हो रहा है । इस की चर्चा में बाइमा तुनचू ने कहा:

"प्रथम खेप के विद्यार्थियों में 26 युवा थे । उन्हें जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा की कोई जानकारी नहीं थी, इस तरह सीखना उन के लिए मुश्किल था। लेकिन वे दिन रात मेहनत से सीखते थे । दिन में नाचना सीखते थे और रात को सोने के पूर्व गायन सीखते थे । उन की मेहनत देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई । क्योंकि जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा को जारी रखना हमेशा से मेरा विचार रहा है ।" लोका प्रिफैक्चर के जातीय सांस्कृतिक अवशेष बचाव कार्यालय के प्रधान श्री रग्यात्सो के अनुसार कक्षा की स्थापना के शुरू में स्थिति बहुत कठोर थी । अभिनेताओं का रोज़ाना का वेतन सिर्फ़ 0.25 य्वान रन मिन बी था। साथ ही आज जैसे अभिनय के कपड़े व उपकरण भी नहीं थे । लेकिन बूढ़े कलाकार बाइमा तुनचू का पक्का संकल्प दृढ़ था और वह बाहर जा कर अभिनय के जरिए पैसे कमाते थे । इस तरह वह कक्षा आज तक जारी है । आज तक तिब्बती बूढ़े कलाकार बाइमा तुनचू ने जाशी शोबा तिब्बत ओपेरा के दो सो से अधिक शिष्यों को प्रशिक्षित किया है। वे क्षेत्रीय नागरिक कला केंद्र, जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा अभिनय मंडली आदि तिब्बती गैर सरकारी कलात्मक मंच पर सक्रिय रहे हैं । खुशी की बात यह है कि बाइमा तुनचू के शिष्यों में से एक निमा त्सेरन जाशी शोबा की आठवीं पीढ़ी के अध्यापक बन गए और वे इस प्रकार के तिब्बती ओपेरा के आगे विकास का दायित्व उठा रहे हैं । निमा त्सेरन ने कहा:

"हमारे अध्यापक ने हमें न सिर्फ़ जाशी शोबा तिब्बती ओपेरा का गायन पढ़ाया, बल्कि हमें सच्चे माइने में कला के प्रेम से परिचय कराया । अब वे नब्बे वर्ष के होने वाले हैं । मुझे लगता है कि उन से ज्यादा सीखना चाहिए, लेकिन समय कम है । हमारी पीढ़ी के शिष्यों के सामने भिन्न-भिन्न मुश्किलें हैं, लेकिन मैं गुरू जी की बातों को याद कर मुश्किलों को दूर करने की कोशिश करूंगा , मैं अपने गुरू जी के और हमारे सपने को जारी रखना चाहता हूँ ।"

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