लेकिन इस नाजुक घड़ी पर डाक्टर कोटनीस को घर से एक पत्र मिला, जिस में कहा गया कि उन के पिता जी का देहान्त हुआ। मेडिकल मिशन के नेता डाक्टर अटलने उनसे स्वदेश लौटने को कहा। पर डाक्टर कोटनीस ने इन्कार करते हुए कहा, मैं तब तक घर नहीं लौटूंगा, जब तक मैं अपने वचन पर अमल नहीं करूं।
22 जनवरी 1939 में मेडिकल मिशन येनान के लिए छुंग छिंग से रवाना हुआ। 24 मई 1939 को अध्यक्ष मौओ त्से तुंग ने जवाहर लाल नेहरु के नाम अपने पत्र में कहा कि मेडिकल मिशन येनान में काम करने लगा और उस को आठवीं राह सेना के कमांडरों औऱ जवानों से भावभीना स्वागत मिला। पर मेडिकल मिशन के सदस्यों ने अग्रिम मौर्चे पर जाने की इच्छा व्यक्त की। आठवीं राह सेना के कमांडर जनरल जू दे ने मेडिकल मिशन के अनुरोध पर रजामन्दी की।
एक दिन की सुबह डाक्टर अटल, डाक्टर कोटनीस, डाक्टर बासु तथा एक जर्मन डाक्टर के साथ आठ बोटी गाडं और तीन फौजी अफसरों के संरक्षण में शी एन से होकर दक्षिण शेन शी के लिए रवाना हुए।
रास्ते में उन्हें तरह तरह की अकाल्पनिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अग्रिम मोर्चे पर लोगों का जीवन येन एन से कहीं कठिन था। इस के बावजुद मेडिकल मिश के सदस्य जी जान से आठवीं रास सेना के घायल जवानों व आम मरीजों की सेवा करते रहे।
बाद में डाक्टर अटल का एक्जीमा फिर से गंभीर हो उठा। 3 फरवरी को अटल भारत के लिए रवाना हो गये। पांच सदस्योंके मेडिकल मिशन में से अब केवल डाक्टर कोटनीस औऱ डाक्टर बसु चीन में रह गये। तब से डाक्टर बसु और डाक्टर कोटनीस अग्रिम मोर्चे में लौट घायल सैनिकों और आम मरीजों का इलाज करने में अपनी पूरी शक्ति लगायी।
अकसर लोग इस बात पर आश्चर्य चकित होते थे कि कैसे डाक्टर कोटनीस और बसु जैसे साधारण राष्ट्रवादी, जापानी आक्रमण विरोधी युद्धागिनी में तप कर अन्तरराष्ट्रवादी बन गये।
लड़ाई की कठोरताओं से पीछे हटनेकी बजाए, डाक्टर कोटनीस और डाक्टर बसु और अधिक दृढ़ होते चले गये। युद्ध ने उन का मानसिक क्षितिज और ज्यादा विशाल कर दिया।