थुवावासी
यहां के मंगोल युर्त बड़े विचित्र हैं। इनकी दीवारों सरपट की टहनियों और मिट्टी की कच्ची ईंटों से बनी होती हैं। छत भी मिट्टी की होती है और उस पर घास उगी रहती है।
मैं एक थुवावासी के घर में गया। अंदर 80 वर्ष का एक मंगोल बुजुर्ग सिर नीचे किए अपना काम कर रहा था। वह एक मोटे श्वेत कपड़े से एक-एक धागा निकाल रहा था। झुर्रीदार हाथों में उतनी ताकत नहीं लग रही थी, फिर भी उसकी आंखों की शक्ति बरकरार थी और वह सुई में धागा पिरो रहा था। वह चुपचाप काम कर रहा था। शारीरिक श्रम उसके लिए हवा और पानी की तरह है, जीवन की अंतिम सांस तक वह काम करता रहता है।
पाएहापा में रहने वाले मंगोल लोग अपने को थुवावासी मानते हैं, हालांकि वे ठेठ मंगोल भाषा बोलते हैं। पिछले ऐतिहासिक कालों में थुवावासी तुखार जाति के वंशज के रूप में उत्तर पश्चिमी चीन की अनेक जातियों के साथ रक्त-संबंध रखते थे। वे मंगोल भाषा बोलते हैं और लामा धर्म मानते हैं। अनेक दशकों से विवाह संबंधों के कारण आज उनका जीवन व रीति-रिवाज बिलकुल मंगोल जाति की तरह हो गया है। मगर लम्बे समय तक कजाख जाति के लोगों के साथ रहने के कारण उनकी भाषा में अनेक कजाखी शब्द भी आ गए हैं।
पाएहापा गांव की भूमि बड़ी उपजाऊ है और जल स्वच्छ है, इसलिए यहां पशुपालन और कृषि के विकास की अनुकूल स्थिति है। यहां थुवावासी पशुपालन करने के अलावा गेंहू व आलू उगाते हैं और यह गांव अनाज के मामले में आत्मनिर्भर है।