पाएहापा गांव
जब मैं गांव के नजदीक आया तो मुझे गाय-बैलों की आवाज सुनाई पड़ी।
मैंने देखा कि कजाखी स्कर्ट पहनी हुई मंगोल जाति की महिलाएं घर के बाहर छोटे स्टूल पर बैठी गाय दुह रही हैं। दूध दुहने के बाद गायों को पहाड़ पर हांक दिया जाता है और शाम के वक्त ये वापस अपने मालिक के घर लौट आती हैं।
यहां के गांववासी सूर्योदय के समय काम पर जाते हैं और सूर्यास्त के समय लौटते हैं। बस पशु चराना, खाना खाना और आराम करना इन लोगों की दिनचर्या है। बड़ी शान्तिमय और संतोषपूर्ण जिन्दगी है इनकी।
ये साल और महीनों का फर्क मौसम के हिसाब से करते हैं। उनके लिए सिर्फ वसंत और गरमी आदि का फर्क होता है। उनमें कोई भी महीने व तारीख की याद करने की जरूरत नहीं समझता। उनको केवल यह ध्यान रहता है कि कब पेड़ों के पत्ते हरे से पीले होते और कब पीले होने के बाद सूख जाते हैं। जब बर्फ पड़ने लगती है तब वे ऊनी चादर निकालते हैं और तापने की व्यवस्था करते हैं। यहां घड़ी उस नदी की तरह है, जो इस गांव से गुजरती हुई धीरे-धीरे और निरंतर बहती रहती है।
कैमरे के फोकस से सूरज की अंतिम रोशनी से लाल हुई पेड़ों की फुनगियों और यहां के सुरम्य और शांत दृश्यों को देखते हुए अनायास मेरे दिल में यह ख्याल आया कि काश शहर की ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं, मानव समुद्रों और गाड़ियों की लहरों से उकताए नगरवासियों को यहां की ताज़ा हवा में सुख से सांस लेने का मौका मिलता तो वे भी अपने मानसिक और आपसी संबंधों के तनाव को कम कर पाते। यहां के घास मैदान में हाथ पैर पसारकर सोने में सच्चा सुकून मिलता।