दो जातियों का समावेश
ऐतिहासिक विकास के अनुसार जातियों का समावेश बिलकुल स्वाभाविक प्रक्रिया है, मगर दो भिन्न-भिन्न धर्मों की दो अलग-अलग जातियों का इतना सुन्दर और सुगम समावेश देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।
गांव की महिलाओं की वेशभूषा देखकर आप साफ-साफ नहीं बता सकते कि कौन मंगोल है और कौन कजाखी। जीवन और रीति-रिवाज में भी ज्यादा फर्क नहीं दिखाई देता। गांव की सामान्य भाषा कजाखी है। थुवावासी बड़े बुद्धिमान हैं, पांच-छै साल की उम्र से ही कजाखी बोल लेते हैं। यहां अनेक ऐसे किशोर हैं, जो मंगोल, कजाखी और हान भाषा बोल सकते हैं।
कहा जाता है कि धार्मिक विश्वास के अलावा यहां इन दो जातियों के बीच कोई दूसरा फर्क या भेद नहीं है। इन दो जातियों के लोग एक साथ काम करते हैं, वे एक-दूसरे के सहयोगी हैं और उनका एक-दूसरे से जुदा होना मुश्किल है। पर उनके बच्चे गांव के अलग-अलग स्कूलों में पढ़ते हैं।
गांव के एक कोने पर एक पहाड़ी टीला है। वहां मुझे कुछ लकड़ियों के बने घर दिखाई दिए। नजदीक जाकर मैंने देखा, ये कजाखी लोगों की कब्रें हैं। इन कब्रों के ऊपर लकड़ी के लट्ठों से सुन्दर आवास बने हुए हैं। ये आवास कजाखी लोगों द्वारा अपने मृत सगृ-संबंधियों के लिए बनाए गए हैं। क्योंकि उनकी यह आशा है कि उनके मृत प्रियजन इन आवासों में बस जाएंगे और उन्हें दर-दर नहीं भटकना पड़ेगा। कब्रें पहाड़ी टीले के उस स्थान पर हैं, जिन्हें गांव के लोग दूर से देख सकते हैं। ऐसा लगता है मानो वे चाहते हों कि मृत और जीवित दोनों साथ-साथ जीवन के सुख-दुख के भागीदार बनें। इसके विपरीत मंगोल अपने मृत प्रियजनों के लिए कब्र तैयार नहीं करते हैं। उनका अंतिम संस्कार बड़ा सरल है, यानी मृत व्यक्ति का पार्थिव शरीर जंगल में फेंक दिया जाता है, जहां पशु-पक्षी उसका भक्षण करते हैं। क्योंकि उन लोगों का यह विश्वास है कि "जिस घास या मांस का भक्षण किया जाता है, अंत में पार्थिव शरीर उसी को सौंप देना चाहिए।"