आज फोकस में है दक्षिण एशियाई देशों के समाज में बढ़ रही असहनशीलता। एक समय था जब लोकतंत्र में संविधान के द्वारा दी गई बोलने की आजादी पर कभी अंकुश लग सकता है। यह सोचना भी नागवार लगता था। लेकिन कुछ ही दशकों में समाज में सहनशीलता बढ़ने के स्थान पर उस का तेजी से हनन देखने में आया है। बंगलादेश की लेखिका तस्लीमा नसरीन की किताब लज्जा पर कुछ साल पहले हुए बवाल के कारण वह आज भी देश से बाहर रहने पर मजबूर है। भारत में अभी कुछ दिन पहले इंग्लैंड में दिवंगत हुए मशहूर चित्रकार फिदा हुसैन के चित्रों पर भारत में जिस तरह से हंगामा हुआ और तंग आ कर उन्हें भी देश छोड़ना पड़ा। मराठा शिवाजी पर लिखी किताब और हाल ही में गांधी पर लिखी किताब पर लगी पाबंदी और इसी तरह की अन्य घटनाएं यही दर्शातीं हैं कि समाज में दक्षिणपंथी उन ताकतों का नियंत्रण बढ़ा है जो समाज को पुरातन युग में ले जाना चाहते हैं और वैज्ञानिक दृष्टि पर आधारित विकास के विरोधी हैं।
हाल ही में भारत के दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रस्तावित रामायण पर प्रसिद्ध लेखक रामानुजन के लेख...कितनी रामायणें को पाठयक्रम से निकालने के पीछे भी ऐसी ताकतों के आगे सिर झुकाना है। इस घटना और इस असहनशीलता की बढ रही इस प्रवृत्ति पर हम ने भारत के दिल्ली में इगनो और वर्तमान में अंबेदकर विश्वविद्यालय में डीन के पद पर कार्यरत विद्वान और प्रोफेसर सलिल मिश्रा से बात की।