ऐसे ही एक बच्चे से हमने पूछा तो उसने बताया:
"शनिवार को मुझे स्कूल तो नहीं जाना पड़ता, लेकिन सुबह 2 घंटे के लिए प्यानों सीखने के लिए जरूर जाना पड़ता है, और दोपहर बाद 1 घंटे के लिए अंग्रेजी की क्लास में जाना होता है, जबकि रविवार को 3 घंटे मैथ्स की क्लास के लिए जाना होता है, और बाकी समय में स्कूल से मिला होमवर्क करना होता है।"
जब हम ने एक बच्चे के माता-पिता से पूछा कि क्या उन्हें नहीं लगता कि वे अपने बच्चे पर बहुत अधिक बोझ डाल रहे हैं तो उन्होंने कहा:
"जीवन में प्रतियोगिता बहुत कठिन है और बच्चा यदि खेल कूद में ही समय बिताता रहा तो आगे जीवन में पिछड़ जाएगा। शहरी जीवन में और तेजी से विकास कर रहे समाज के सामने ऐसी स्थितियां आती ही हैं, जिन्हें अच्छे-बुरे की कसौटी पर रख कर परखना संभव नहीं है। जब हमारा बच्चा कामयाब हो जायेगा, तो इससे बडी खुशी माता-पिता को और क्या हो सकती है"
बच्चों को अच्छे स्कूलों में डालने की चूहा-दौड़ के अलावा एक और बुखार ने शहरी चीनी समाज को अपनी चपेट में ले रखा है। वह है अंग्रेजी सीखने की दौड़। अंग्रेजी सिखाने के स्कूल शहरों में हर जगह देखने को मिल जाएंगे। अंग्रेजी सीख कर रोजगार के अवसर बढेंगे और अच्छी नौकरी मिलेगी, यह सोच कर हर व्यक्ति अंग्रेजी सीखने में लगा है। इस तरह के स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने वाले अध्यापक बहुत अच्छी तनख्वाह पा रहे हैं, जबकि उनकी तुलना में चीनी अध्यापक जो मेहनत भी ज्यादा करते हैं, उनकी तनख्वाह कम होती है। लेकिन जो बच्चे अब हाई स्कूल में और विश्वविद्यालय में पहुंचे हैं उन के सामने ऐसी समस्या नहीं है,पिछले दस साल से अंग्रेजी पर जो ध्यान दिया गया है उसका परिणाम यह है कि स्कूलों, कॉलिजों और विश्वविद्यालय में पढऩे वाले छात्रों की अंग्रेजी बहुत अच्छी है। हाँ, गांवों में स्थिति जरुर ऐसी नहीं है।
(अखिल पाराशर)