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अफगान तालिबान का राजनीतिक कार्यालय 8 जून को कतर की राजधानी टोहा में विधिवत् रूप से स्थापित हो गया। कई विश्लेषकों ने दावा किया है कि इस की अफगानिस्तान में शांति-प्रक्रिया को आगे बढाने में अच्छी-खासी भूमिका होगी। उधर अमेरिका ने कहा कि वह आगामी 20 तारीख को टोहा में तालिबान के साथ शांति के लिए वार्ता करेगा। लेकिन अफगान राष्ट्रपति करजई ने बताया कि वह अमेरिका एवं तालिबान के बीच कतर में होने वाली वार्ता का बहिष्कार करेंगे।
20 तारीख को होने वाली शांति-वार्ता अमेरिका और तालिबान के बीच कई वर्षों के बाद पहली वार्ता होगी। इस पर अमेरिकी अधिकारियों ने आशा प्रकट की कि इस वार्ता से अफगानिस्तान में शांति स्थापित होगी। जानकारों के अनुसार इस वार्ता में मुख्य रूप से दोनों पक्षों की कार्यसूचियों की अदला-बदली होगी और शांति-स्थापना के लिए दोनों पक्षों के विचारों एवं उपायों की जानकारी ली जाएगी। इसके एक या दो सप्ताह बाद दूसरी वार्ता की जाएगी, जिसमें उठाए जाने वाले कदमों पर विचार-विमर्श किया जाएगा। 19 जून को अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने इस बात की पुष्टि की कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय हाल के कई सप्ताहों से तालिबान के साथ संपर्क में रहा है। लेकिन उन्होंने कहा कि यह सिर्फ प्रारंभित संपर्क है।
करजई ने 18 जून को सूचना दी कि अमेरिका और अफगान तालिबान के बीच वार्ता शुरू हो चुकी है। करजई ने दावा किया कि वह 20 तारीख को होने वाली वार्ता में भागीदारी के लिए अपना प्रतिनिधि भेजेंगे। लेकिन एक दिन बाद यानी 19 तारीख को करजई के कार्यालय ने अचानक यह वक्तव्य जारी किया, जिसमें कहा गया है कि शांति-प्रक्रिया को अफगानीकृत बनाए बैगर अफगान सरकार के प्रतिनिधि कतर में होने वाली वार्ता में भाग नहीं लेंगे। इस तरह का बहिष्कार तब तक जारी रहेगा, जब तक बाह्य शक्ति अफगानियों को शांति-वार्ता का जिम्मा नहीं सौंपती।
सूत्रों के अनुसार करजई के 20 तारीख को होने वाली वार्ता का बहिष्कार करने का अमेरिका द्वारा इस वार्ता के लिए तय पूर्वशर्त से संबंध हो सकता है। रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका द्वारा तय पूर्वशर्त सिर्फ यह है कि तालिबान हिंसा को छोड़ दे। इसमें युद्धविराम का एक भी शब्द में जिक्र नहीं है। जबकि अफगान सरकार चाहती है कि पूर्वशर्त में यह विषय भी शामिल होना चाहिए कि अफगान सरकार के साथ वार्ता का वादा किया जाए और अफगान संविधान को मान्यता दी जाए तथा बल-प्रयोग का त्याग किया जाए।
करजई की ओर से बहिष्कार के कारण अमेरिका और अफगान तालिबान के बीच होने वाली वार्ता में वांछित प्रगति होना कठिन हो सकता है। दरअसल अफगानिस्तान में सरकार एवं तालिबान के बीच शांति-वार्ता गतिरोध में पड़ी हुई है। इधर के दिनों में तालिबान द्वारा किए गए अनेक हमलों ने इस वार्ता को और भी अंधेरे में डाल दिया है। इसके मद्देनजर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि वार्ता आसानी से आगे चलना असंभव है। हो सकता है कि यह स्थिति कई वर्षों तक जारी रहेगी। अगर स्थिति बिगड़ जाती है, तो यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी।
अमेरिका योजनानुसार आगामी जुलाई माह में अफगानिस्तान से अपने सैनिक वापस बुलाना शुरू करेगा और वर्ष 2014 के अंत तक सेना-वापसी की योजना पूरी करेगा। जैसे जैसे सेना-वापसी का समय नजदीक आ रहा है, अफगानिस्तान की शांति-प्रक्रिया में तालिबान को शामिल करने में तेजी लाना अमेरिका का अनिवार्य विकल्प बनता जा रहा है। इसके साथ तालिबान शांति-वार्ता के लिए अपने को और अधिक भारी-भरकम बना रहा है। क्या अमेरिका तालिबान के साथ सुलह-समझौता कर सकता है? और वार्ता किस के हित में चली जाएगी? इसका पता लगाने के लिए और भी कठिन काम करना बाकी है।
वास्तव में पिछले वर्ष अफगान सरकार ने तालिबान के साथ शांति-प्रक्रिया शुरू की थी और इस के लिए एक उच्च स्तरीय शांति-कमेटी बनाई गई थी, जिसका लक्ष्य तालिबान के साथ संपर्क करना, उसे बल-प्रयोग का त्याग करने एवं सरकार की अगुवाई वाली शांति-प्रक्रिया में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना है। लेकिन तालिबान ने करजई के साथ प्रत्क्षय वार्ता से इन्कार कर दिया और दावा किया कि वो अमेरिका की कठपुतली है। तालिबान ने यहां तक भी कहा कि शांति-वार्ता के लिए विदेशी सेना की वापसी को पूर्वशर्त बनाया जाने की जरूरत है। शांति-कमेटी की स्थापना अफगान जनता को धोखा देने का अमेरिका का एक राजनीतिक हथकंडा है।