दोस्तो , विश्व व्यापार संगठन में चीन की सदस्यता की बहाली के बाद यह सब से बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है कि विदेश व्यापार में तेज वृद्धि हुई है । पिछले दस सालों में कुल आयात निर्यात में 6 गुनों का इजाफा हुआ है , यानी 2001 वर्ष के पांच खरब अमरीकी डालर से बढ़कर 2010 वर्ष तक के करीब 30 खरब अमरीकी डालर हो गया है , अनुकूल व्यापार संतुलन 2001 वर्ष के 30 अरब अमरीकी डालर से बढकर 2008 वर्ष तक के तीन खरब अमरीकी डालर पहुंच गया है ।
इसी बीच चीन ने विदेशी पूंजी को आकर्षित करने पर भी जोर दिया है । विदेशी पूंजी की कुल रकम 2000 वर्ष के 41 अरब अमरीकी डालर से बढ़कर 2010 वर्ष तक एक खरब 6 अरब अमरीकी डालर हो गयी है , जो डेढ़ गुना बढ़ गया । विदेशी पूंजी का आयात व अनुकूल व्यापार संतुलन बढने के चलते विदेशी मुद्रा भंडारण भी तेजी से बढ़ गया है । 2010 वर्ष के अंत तक चीनी विदेशी मुद्रा भंडारण 32 खरब अमरीकी डालर तक पहुंच गया , जो कुल विश्व विदेशी मुद्रा भंडारण का तीस प्रतिशत बनता है ।
पूंजी व निर्यात की प्रेरणा में चीनी जी डी पी की औसत सालाना वृद्धि दर दो अंकों से ऊपर है । अमरीकी डालर के मौजूदा दाम के हिसाब से पिछले दस सालों में चीनी जी डी पी में 13 खरब अमरीकी डालर से बढ़कर 61 खरब अमरीकी डालर की बढोत्तरी हुई है , कुल विश्व आर्थिक मूल्य में चीन का अनुपात 4.2 प्रतिशत से बढ़कर 9 प्रतिशत हो गया है । 2010 में चीनी जी डी पी जापान को पीछे छोड़कर दुनिया में दूसरा बड़ा आर्थिक समुदाय बन गया है । सामान्य विकास रफ्तार के अनुसार आगामी 2020 तक चीनी जी डी पी अमरीका को पार कर लेगा ।
पिछले दस सालों में चीन में हुए जमीन आसमान के भारी परिवर्तन ने विश्व भू राजनीतिक अर्थतंत्र पर व्यापक व गहरा प्रभाव डाल दिया है ।
सर्वप्रथम , विश्व आर्थिक वृद्धि का जोर पश्चिम से पूर्व पर स्थानांतरित हो गया है । चीनी व्यापारिक व आर्थिक वृद्धि ने विभिन्न एशियाई देशों , खासकर भारत के लिये एक अच्छी आदर्श मिसाल खड़ी कर दी है । चीन व भारत दोनों देशों की जनसंख्या विश्व की कुल संख्या का 35 प्रतिशत है , 2010 में इन दोनों देशों का कुल जी डी पी मूल्य कुल विश्व आर्थिक मूल्य का 11 प्रतिशत है । अनुमान है कि आगामी 2020 तक इन दोनों देशों का कुल जी डी पी मूल्य कुल विश्व मूल्य का 25 प्रतिशत बनेगा ।
दूसरी तरफ चीन के भारी निर्माण उद्योग ने कच्चे मालों व ऊर्जा के विशाल उपभोग को प्रोत्साहन दिया है । रुस , ओशेनिया , अफ्रीका और एशिया के कुछ भरपूर समृद्ध संसाधनों से संपन्न देशों ने चीन के तेज विकास के प्रभाव में आर्थिक विकास में बड़ी तरक्की भी की है , साथ ही अमरीका और यूरोप के विकसित देशों को इस से लाभ हुआ है ।
तीसरी तरफ चीन के तेज उत्थान से भूमंडलीय पूंजी के बहाव को गति मिली है , चीन न सिर्फ विदेशी पूंजी को आकर्षित करने वाले सब से बडे देशों में से एक है , बल्कि 2004 से उस ने दूसरे देशों को अपनी ज्यादा पूंजी का निर्यात कर दिया है , 2010 तक चीन ने विदेशों में कुल 60 अरब अमरीकी डालर पूंजी लगायी ।
इस के अलावा चीन के विकास ने मूल रुप से विश्व राजनयिक व राजनीतिक स्थिति बदल दी । जी 20 क्रमशः जी सात का रुप लेकर विश्व राजनीति , अर्थतंत्र और राजनय को प्रभावित करने वाली प्रमुख शक्ति बन जायेगा । जबकि चीन की रहनुमाई में चार ब्रेक देश जी 20 का मुख्य संगठित भाग है , विश्व राजनीतिक अर्थतंत्र पर उस का प्रभाव अवश्य ही दिन ब दिन बढ़ता जायेगा ।
लेकिन चीन के उत्थान के साथ साथ नयी चुनौतियां और समस्याएं सामने आयी हैं ।
2008 के बाद हुआ विश्व आर्थिक संकट मूलतः प्रमुख पश्चिमी देशों द्वारा अपने आर्थिक ढांचे , व्यापारिक ढांचे और उपभोक्ता ढांचे व वित्तीय प्रणाली का ठीक समय पर समायोजन न किये जाने की वजह से उत्पन्न भूमंडलीय वित्तीय संकट का कुपरिणाम व अभिव्यक्ती ही है । वास्तव में चीनी मुद्रा रन मिन पी का मूल्य इधर दस सालों में 50 प्रतिशत बढ़ चुका है , ऐसा होने पर भी बहुत से यूरोपीय देशों ने लगातार चीन पर रन मिन पी की विनिमय दर को नियंत्रित करने का आरोप लगाया है । व्यपार युद्ध और मुद्रा युद्ध आर्थिक संकट तले विश्व व्यापारिक विवादों का केंद्र ही नहीं , चीन के विदेश व्यापार की समस्या और चुनौति भी है ।
2001 से पहले चीन को तेल का अभाव नहीं था , जबकि 2010 तक चीन को तेल की मांग के 53 प्रतिशत भाग पर निर्भर रहना पड़ा , उसी साल में 23 करोड़ 60 लाख टन तेल का आय़ात हुआ । वाहनों के उत्पादन व उपभोग को बढावा देने के साथ साथ तेल के आयात पर चीन और ज्यादा निर्भर रहेगा ।
विभिन्न चुनौतियों को ध्यान में रखकर चीन के लिय यह जरूरी है निर्यातोमुखी रणनीतिक सिद्धांत को बदला जाये और निर्यात व भीतरी मांग , पूंजी व उपभोग को संतुलित बनाने की नयी विकास रणनीति अपनायी जाये ।