इतिहास सॉलट रूम थेरेपी 18वीं सदी में सामने आई थी जब 1843 में पॉलिश हेल्थ अधिकारियों ने देखा कि पोलैंड के वीलिक्जका में नमक की खद्दानों में काम करने वाले मजदूर श्वसन से जुड़ी उन बीमारियों से ग्रस्त नहीं है जिनसे आम लोग ग्रस्त हैं. फिर तो पूर्वी यूरोप में जल्द ही हेलोथेरेपी नमक के कमरों ने प्रसिद्ध प्राप्त कर ली.
मेडिकल परिभाषा में, सॉल्ट रूम थेरेपी या हेलोथेरेपी में कृत्रिम नमक की गुफाओं में बैठकर सूखे नमक के बहुत ही छोटे छोटे कणों को सांस द्वारा ग्रहण किया जाता है. ये अवधारणा लोगों को नई लग सकती है लेकिन कई देशों में इस थेरेपी की मदद से श्वसन और त्वचा से जुड़े रोगों का सफलतापूर्वक इलाज किया जाता है.
क्या है इसका विज्ञान: आम लोगों को अस्थमा और नमक के कमरों का आपसी संबंध शायद समझ न आये. एसआरटी इंडिया की कंस्लटिंग डॉ. वर्षा के मुताबिक दरअसल सॉल्ट रूम थेरेपी के पीछे बहुत ही साधारण विज्ञान है. सांस की नलियों में ऐंठन की वजह से आई सूजन को नमक कम करता है. नमकीन हवाएं सूजन करने वाली श्वांस नलियों के आसपास की लाइनिंग की सूजन को सोख लेती हैं. इससे सांस की नलियों में हवा का आवागमन आसानी से होने लगता है और सांस की नलियों का मार्ग चौड़ा हो जाता है और बलगम में सुधार होता है. इससे ब्लॉकेज खत्म हो जाती है और ये अस्थमा अटैक को नियंत्रित करने में मदद करती है.
कब तक रहता है असर: सॉल्ट रूम थेरेपी कुछ समय के लिए ही फायदेमंद नहीं है बल्कि कई महीनों तक इसका असर रहता है. इसके सेशन पूरे करने से अस्थमा रोगियों को बिना किसी साइड इफेक्ट्स के लंबे समय तक आराम मिलता है. यह दवाई रहित इलाज है जिसमें क्रोनिक ब्रोंकाइटिस, साइनस, एलर्जिक रिनटिस, धूम्रपान और एलर्जी की खांसी और त्वचा के रोग जैसे कि खाज खुजली और सोरायसिस इत्यादि का इलाज किया जाता है.
समुद्र के किनारे कुर्सी पर बैठे लहरों से आ रही नमकीन हवाओं का आनंद महसूस करने के लिए अब कई किलोमीटर चलकर जाने की जरूरत नहीं है. स्वास्थ्य के लिए कारगर इन नमकीन हवाओं का मजा अब समुद्र के किनारों के शहरों में ही नहीं बल्कि राजधानी में भी लिया जा सकता है. दुनियाभर में मशहूर सॉल्ट रूम थेरेपी की शुरुआत दिल्ली में भी हो चुकी है. इससे अस्थमा और सांस से जुड़ी अन्य बीमारियों का इलाज किया जाता है.